Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ३५५. संपहि ते चेव चरिमफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहारूवूणअधापवत्तवग्गमेत्ततिचरिमफालिविसेसाणं जदि एगा चरिमफाली लब्भदि तो सेढोए असंखे०भागमेत्ततिचरिमफालिविसेसाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चरिमफालीओ लब्भंति १०। ।
६३५६. एवं चरिम-दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिमादीणं पि परूवणं करिय सिस्साणं संसकारो उप्पादेदव्वो। संपहि उप्पण्णसंसकारसिस्साणमइसंसकारमुप्पायणलं घोलमाणजहण्णजोगमादि कादृण जाव सण्णिपंचिंदियपजत्तयदउक्कस्सजोगो ति ताव एदेसि सेढीए असंखे० भागमेत्तजोगहाणाणमेगसेढिआगारेण रयणं कादण पुणो सवेदचरिम-दुचरिमआवलियाणमवगदवेदपढम-विदियआवलियाणं च समयरयणा कायव्वा । एवं काऊण पुणो पुरिसवेदस्स ढाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–जो चरिमसमयसवेदेण जहण्णपरिणामजोगेण बद्धो समयपबद्धो बंधावलियादिकंतपढमसमयप्पहुडि परपयडीसु संकंतदुचरिमादिफालिकलावो चरिमफालिमेत्तावसेसो सो जहण्णपदेससंतकम्महाणं होदि । संपहि एदस्सुवरि एगपरमाणुत्तरादिकमेण हाणाणि ण उप्पजंति, पदेससंकमस्स एगजोगेण बद्धेगसमयपबद्धविसयस्स सव्वजीवेसु समाणत्तादोअवगदवेदम्मि
६ ३५५. अब उन्हीं त्रिचरम फालिविशेषोंको चरम फालियोंके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा-एक कम अधःप्रवृत्तभागहारके वर्गप्रमाण त्रिचरम फालिविशेषोंमें यदि एक चरम फालि प्राप्त होती है तो जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रिचरम फालिविशेपोंमें कितनी अन्तिम फालियां प्राप्त होंगी, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाण राशिका भाग देने पर चरम फालियां प्राप्त होती हैं १०।
. उदाहरण-यदि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारका वर्ग (९-१)=६४; त्रिचरम फालि विशेषों ६४४२३६१९६ की एक चरम फालि १५११६५४४ प्राप्त होती है तो ३६४ . २३६१९६ की ३६४१५११६५४४ अर्थात् १६ चरम फालि प्राप्त होंगी।
६३५६. इस प्रकार चरम, द्विचरम, त्रिचरम और चतुःचरम आदि फालियोंका भी कथन करके शिष्योंमें संस्कार उत्पन्न करना चाहिये । अब जिन शिष्योंमें संस्कार उत्पन्न हो गये हैं उनमें और अधिक संस्कारोंके उत्पन्न करनेके लिये जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण इन योगस्थानोंकी एक पंक्तिमें रचना करके फिर सवेद भागकी चरम और द्विचरम आवलियों के और अपगतवेदकी प्रथम और द्वित्तीय आवलियोंके समयोंकी रचना करनी चाहिये । ऐसा करनेके बाद अब पुरुषवेदके स्थानोंका कथन करते हैं । यथा-अन्तिम समयवर्ती सवेदीने जघन्य परिणाम योगके द्वारा जो समयप्रबद्ध बांधा उसमेंसे बन्धावलिके बाद प्रथम समयसे लेकर द्विचरम फालि तकका द्रव्य पर प्रकृतियों में संक्रान्त होकर जो चरम फालि मात्र शेष रहता है वह जघन्य प्रदेशसत्कर्म है। अब इसके आगे उत्तरोत्तर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे स्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि एक योगके द्वारा बांधा गया समयप्रबद्धसम्बन्धी प्रदेशसंक्रम अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती सब जीवोंके समान होता है। तथा अपगतवेदोके पुरुषवेदका उदय नहीं होनेसे अधःस्थितिकी निर्जरा नहीं पाई जाती, इसलिये
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