Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहन्तीए सामित्तं
२६५
६ २६७. संपहि खविदकम्मंसियस्स संतकम्ममस्सिदृण द्वाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा — खविदकम्मं सियलक्खणेणागदचरिमफालीए उवरि परमाणुत्तरकमेण वडावेदव्त्रं जावप्पणो गुणसंकमेण गददुचरिमफालिदव्वं त्थिबुकसंक्रमेण गदगुणसेढिदव्वं च वडिदं ति । पुणो एदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागतूण अप्पणी दुरिमफालिं धरिय द्विदो सरिसो । एदेण कमेण वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव दुरिमट्टि दिखंडय चरिमसमओ त्ति । पुणो दुरिमडि दिखंडयप्पहुडि फालिदव्व वडावे दव्वं, तस सत्थाणे चेव पदणुवलंभादो । किं तु तस्स त्थिबुकगुणसेढिगोवुच्छं गुणसंकमदव वड्डाविय ओदारेदव्व जाव आवलिय अणियति ।
२६८. पुणो तत्थ ठाइदूण वड्डाविजमाणे तस्समयम्मि त्थिवुक्कसंकमण गदअपुव्वगुणसे ढिगोवच्छागुणसंकमण गददव्व' च वड्डाव देव्व । एवं वडिदूण हिदेण अण्गो जहण्णसामित्तविहाणेणागं तूण समयूणावलियअणियट्टी होदूण ट्ठिदो सरिसो । एवमोदारेदव्व जाव आवलियअपुव्वकरणं पत्तोति । संपहि तो gr अपुव्वगुणसे ढिगोच्छा ण वड्डाविजदि, अपुव्वकरणम्मि उदयादिगुणसेढीए अभावादो । तेण एतो पहुडि एगगोवच्छं गुणसंकमदव्वं च वड्डाविय श्रोदारेदव्वं जाव अपुव्वकरण पढमसमओ त्ति ।
§ २६७. अब क्षपितकर्मांशके सत्कर्मकी अपेक्षा कथन करते हैं जो इस प्रकार हैक्षपितकर्मा की विधिसे आये हुए जीवके अन्तिम फालिके ऊपर एक एक परमाणु अधिक क्रमसे गुणसंक्रमके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ अपनी द्विचरम फालिका द्रव्य और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ गुणश्र ेणिका द्रव्य बढ़ने तक बढ़ाते जाना चाहिए । फिर इसके समान एक अन्य जीव है जो जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर अपनी द्विचरम फालिको धारणकर स्थित है। इस क्रमसे बढ़ाकर द्विचरम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये | फिर द्विचरम स्थितिकाण्डकसे लेकर फालि द्रव्यको नहीं बढ़ाना चाहिये, क्योंकि उसका पतन स्वस्थानमें ही देखा जाता हैं । किन्तु इसके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुई गुणश्रेणि गोपुच्छाको और गुणसंक्रमके द्रव्यको अनिवृत्तिकरणके एक आवलि काल तक उतारना चाहिये । ९ २६८. फिर वहाँ ठहराकर बढ़ाने पर उस समय में स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुई अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको और गुणसंक्रमके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर अनिवृत्तिकरणमें एक समय कम एक आवलि काल जाकर स्थित है । इस प्रकार अपूर्वकरणमें एक आवलि काल प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। अब इससे नीचे अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा नहीं बढ़ाई जा सकती, योंकि अपूर्वकरणमें उदयादि गुणश्रेणिका अभाव है, इसलिए यहाँ से लेकर एक गोपुच्छाको और गुणसंक्रमके द्रव्यको बढ़ाते हुए अपूर्वकरणके प्रथम समय तक उतारना चाहिये ।
१. आ० प्रतौ 'मस्सिदूण परूवणं' इति पाठः ।
३४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org