Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 304
________________ मा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २९३ समयपबद्धो आवलियाए अकम्मं होदि । णवगसमयपबद्धे आवलियम तक लेणेव खवेदिति भणिदं होदि । जहा चिराणसंतकम्मम तोमुहु तेण कालेन संकामिजदि तहा णवगसमयबद्धो तेण कालेन किण्ण संकामिज्जदि ? साहावियादो । जम्मि पदेसे चरिमसमयसवेदेण बद्धसमयपबद्धो अकम होदि तत्तो हेहा एगसमयमोसक्किदूण ओसरिदूण तस्स चरिमफालिं धरेदूण हिस्स जहण्णयं पदेस संतकम् । * तस्स कारणमिमा परूवणा कायव्वा । ६३०९ तस्स चरिमसमवसव देण जहण्णत्तपदुष्यायण इमा परूवणा कीरदे । * पढमसमयमवेदगस्स केत्तिया समयपबद्धा । बद्धसमयपबद्धस्स चरिमफालिसेसस्स ३१० सुगममदं । * दोश्रावलियाओ दुसमणाश्रो । ३११. दोसु आवलियासु दुसमऊणासु जत्तिया समया तत्तियमेत्ता समयपबद्धा दे अस्थि । पढसमय * केण कारण ? ३१२. दो आवलियासु केण कारणेण दो समया ऊणा किअंति त्ति भणिदं समयसे लेकर वह समयप्रबद्ध एक आवलि कालके भीतर अकर्मभावको प्राप्त हो जाता है । इसका यह तात्पर्य है कि नवक समयप्रबद्धकी एक आवलि कालके द्वारा। ही क्षपणा करता है । शंका - जिस प्रकार प्राचीन सत्कर्मका अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा संक्रमण करता है उसी प्रकार उतने ही कालके द्वारा नवक समयप्रबद्धका क्यों नहीं संक्रमण करता है ? समाधान- —क्योंकि ऐसा स्वभाव है । सवेदीके द्वारा अपने अन्तिम समय में वांधा गया समयबद्ध जिस स्थानमें अकर्मभावको प्राप्त होता है उससे नीचे एक समय सरककर पुरुषवेदकी अन्तिम फालिको धारणकर स्थित हुए जीवके पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । * अब इस जघन्य सत्कर्म के लिये यह आगेकी प्ररूपणा करनी चाहिए । $ ३०९. उसके अर्थात् अन्तिम समयवर्ती सवेदीके द्वारा बांधे गये समयप्रबद्धकी शेष री अन्तिम फालिके जघन्यपनेको बतलाने के लिये यह कथन करते हैं । * प्रथम समयवर्ती अपगतवेदोके कितने समयग्रबद्ध होते हैं ? ६ ३१०. यह सूत्र सुगम है । * दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध होते हैं । ६ ३११. दो समय कम दो आवलियोंमें जितने समयप्रबद्ध होते हैं उतने समय प्रबद्ध प्रथम समयवर्ती अपगतवेदीके होते हैं। * इसका कारण क्या है ? $ ३१२. दो आवलियों में दो समय किस कारणसे कम किये गये, यह सूत्र इस शंकाको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404