Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 313
________________ ३०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ दव्वस्स ऊणत्तुवलंभादो। विदियसमयसंकेतदव्वादो वि तदियसमयसंकंतदव्वमसंखे०. भागहीणं, विदियसमयसंकेतदव्वे अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्तदव्वेण तत्तो तस्स परिहीणत्तुवलंभादो। एवं चउत्थसमयादीणं पिणेदव्वं जाव संकामगदुचरिमसमओ त्ति । पढमफालीए सह सव्वफालीओ सरिसाओ ति घेत्तूण पुणो समयणावलियाए ओवट्टिदअधापवत्तभागहारेण एगसमयपबद्धे भागे हिदे एगसमयपबद्धादो परपयडीए संकेतदव्वं होदि। सेसरूवूणविरलणाए धरिदखंडाणं समुदओ जहण्णपदेससंतकम्मट्ठाणं होदि। संपहि एत्थ एदं समयपबद्धमस्सिदण घोलमाणजहण्णजोगहाणमादि कादूण जत्तियाणि जोगट्ठाणाणि तत्तियाणि चेव संतकम्मडाणाणि होति । ___$ ३२९. एत्थ ताव हाणाणं साहणटं समयपबद्धपक्खेवपमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा—सुहुमणिगोदजहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारे सेढीए असंखे०भागमेत्ते तप्पाओग्गेण पलिदो०असंखे भागेण गुणिदे घोलमाणजहण्णजोगपक्खेवभागहारो होदि । संपहि इमं विरलेदूण चरिमसमयसवेदेण बद्धेगसमयपबद्ध समखंडं कादण दिण्णे तत्थ एकेकस्स रूवस्स एगेगो सगलपक्खेवो होदि । संपहि एदिस्से विरलणाए हेट्ठा अधापवत्तभागहारं विरलेदूण एगसगलपक्खेवे समखंडं कादूण दिण्णे तत्थ एगखंडमवेदपढमावलियचरिमसमए एगसगलपक्खेवादो संकेतदव्वं होदि । संपहि संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य उतना कम पाया जाता है। इसी प्रकार दूसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यसे भी तीसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातवें भागप्रमाण न्यून है, क्योंकि दूसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देनेपर वहाँ जो एक भाग प्राप्त हो, तीसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हआ द्रव्य उतना कम पाया जाता है। इसी प्रकार संक्रामकके उपान्त्य समय तक चौथे आदि समयोंमें भी संक्रमणका क्रम उक्त प्रकारसे जानना चाहिये । प्रथम फालिके समान सब फालियां हैं ऐसा समझकर फिर एक समय कम एक आवलिसे भाजित अधःप्रवृत्तभागहारका एक समयप्रबद्धमें भाग देने पर एक समयप्रबद्धमेंसे पर प्रकृतिमें संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य प्राप्त होता है और शेष एक कम विरलनके ऊपर प्राप्त खण्डोंका जोड़ जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। यहां इस समयप्रबद्ध की अपेक्षा जघन्य परिणामयोगस्थानसे लेकर जितने योगस्थान होते हैं उतने ही सत्कर्मस्थान होते हैं। ६३२९. अब यहाँ स्थानोंकी सिद्धिके लिये समयप्रबद्धके प्रक्षेपके प्रमाणका विचार करते हैं । यथा-सूक्ष्म निगोदियाके जघन्य योगस्थानका प्रक्षेप भागहार जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसे तद्योग्य पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणा करने पर जघन्य परिणाम योगस्थानका प्रक्षेप भागहार होता है। अब इसका विरलन करके इस पर अन्तिम समयवर्ती सवेदीके द्वारा बाँधे गये एक समयप्रबद्धके समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर प्रत्येक एकके प्रति एक एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है। अब इस विरलनके नीचे अधःप्रवृत्त भागहारका विरलन करके उस पर एक सकलप्रक्षेपको समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर वहाँ प्राप्त हुआ एक खण्ड, अपगतवेदीकी प्रथम आवलिके अन्तिम समयमै एक सकल प्रक्षेपमेंसे संक्रान्त हुए द्रव्यका प्रमाण होता है। अब इस प्रमाणको आगे श्रेणिके असंख्यातवें भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404