Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ___ ६२६६. संपहि एदेण कमेण दुसमयूणावलियमेत्तफहयहाणाणं परूबणा कायवा, विसेसाभावादो । संपहि जहण्णसामित्त विहाणेगागतूण वेछावडीओ भमिय विसंजोएदण धरिदचरिमफालिदव्वं जदि वि जहण्णं तो वि समयूणावलियमेत्तफयाणमुक्कस्सदवादो असंखे०गुणं, सगलफालिदव्वस्स असंखे०भागस्सेव गुणसेढीए अवहिदत्तादो गुणसेढिदव्वस्स वि असंखे भागस्सेव उदयावलिआए उवलंभादो। संपहि एवंविहचरिमफालिदव्वं परमाणुत्तरकोण चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण पचहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जावप्पणो उकस्सदव्वं पत्तं ति । एदेणण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमाए पुढवीए कदगोवुच्छृणुकस्सदव्वो देवेसु सम्मत्तं पडिवलिय अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोएदूण अंतोमुहुत्तेण संजुत्तो होदूण सम्मत्तं पडिवजिय भमिदसमऊणवेछावहिसागरोवमो पणो विसंजोइय धरिदचरिमफालिदव्वो सरिसो। एवं समयणादिकोण जाणिदणोदारेदव्वं जाव पढमछावहिअंतोमुहुसूणा ति । पुणो तत्थ ठविय जहा गुणिदसेढिगोवुच्छाणं संधाणं कदं तहा कादव्वं । पुणो एदेण दव्वेण सरिसं चरिमसमयणेरइयदव्यं घेत्तूण परमाणुत्तरकमेण' वड्ढावेदव्वं जावप्पणो उकस्सदव्वं पत्तं ति।
कथन किया।
६२६६. अब इसी क्रमसे दो समयकम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके स्थानोंका कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। अब जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करता रहा । अन्तमें विसंयोजना कर अन्तिम फालिका द्रव्य प्राप्त होने पर वह यद्यपि जघन्य है तो भी एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके उत्कृष्ट द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि पूरे फालिके द्रव्यके असंख्यातवें भागका ही गुणणिरूपमें अवस्थान पाया जाता है । तथा गुणश्रोणिके द्रव्यका भी असंख्यातवां भाग ही उदयावलिमें पाया जाता है। अब इस प्रकारके अन्तिम फालिके द्रव्यको चार पुरुषोंकी अपेक्षा एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पांच वृद्धियोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान गुणितकर्माश एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथिवीमें एक गोपुच्छासे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके क्रमसे देवों में उत्पन्न हुआ और सम्यक्त्वको प्राप्त हो अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर अन्तर्मुहूर्तमें उससे संयुक्त हो सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । फिर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर और पुनः अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाकर अन्तिम फालिके द्रव्यको धारण कर स्थित है। इस प्रकार एक समय कम आदिके क्रमसे जानकर अन्तर्मुहूर्त कम प्रथम छयासठ सागर कालके समाप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। फिर वहां ठहराकर जिस प्रकार गुणित श्रेणिगोपुच्छाओंका सन्धान किया है उस प्रकार करना चाहिये। फिर इस द्रव्यके समान अन्तिम समयवर्ती नारकीके द्रव्यको लेकर एक एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये।
1. प्रा०प्रतौ 'परमाणुतरादिकमेण' इति पाठः ।
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