Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 292
________________ गा. २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २८१ काऊणेगणिसेगमेगसमयं कालं धरेदूण हिदो सरिसो। एवं वड्डाविदे अपुब्वगुणसेटी चेव उक्कम्सा जादा, ण पयडि-विगिदिगोवुच्छाओ। ६ २९१. संपहि विगिदिगोवच्छावड्डावणक्कमो वचदे । तं जहाजहण्णसामित्तविहाणेणागदपयडिगोवुच्छाए उवरि दोहि वड्डीहि अणंता परमाण वड्ढावेदव्वा । एवं वड्डिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण चारित्तमोहक्खवणाए अन्भुट्ठिय पुणो उक्स्सपरिणामेहि अपुव्वगुणसेढिं करिय पुणो अणियदिअद्धाए संखेजे भागे गतूण पढमहिदखंडयं धादियमाणेण तेण ट्ठिदिखंडएण सह पव्वं वड्डाविददव्वमेतं जहण्णविगिदिगोवच्छाए उवरि पक्खिविय पणो विदियादिखंडयाणि पव्वविहाणेण धादिय एगणिसेगमेगसमयकालं धरिय हिदो सरिसो। एदेण कमेण विदियट्ठिदिखंडयप्पहुडि अधियदव्यं पक्खिविय पक्खिविय वढावेदव्वं जाव दुचरिमखंडयं ति । एवं बड्डाविदविगिदिगोवुच्छा वि उक्कस्सत्तमुगगया। ६ २९२. संपहि पयडिगोवुच्छा वडाविजदे । तं जहा–जहण्णपयडिगोवुच्छापरमाणुत्तरादिकमेण चत्तारि परिसे अस्सिदृण पंचहि वड्डीहि वहाव दव्वा जावुकस्सा जादा त्ति । विगिदिगोवुच्छाए उकस्सीए संतीए कथमे किस्से पयडिगोवुच्छाए चेव जहण्णत्तं ? ण, सव्वहिदिगोवुच्छासु उकस्सासु संतीसु वि एगगोवच्छाए वाले एक निषेकको धारण करके स्थित है । इस प्रकार बढ़ाने पर अपूर्वकरणकी गुणश्रोणि ही उत्कृष्ट होती है प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा नहीं। ६२९१. अब विकृतिगोपुच्छाके बढ़ानेका क्रम कहते हैं जो इस प्रकार है-जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आये हुए जीवके प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर दो वृद्धियोंके द्वारा अनन्त परमाणु बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो फिर उत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिको करके फिर अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभागको बिताकर, प्रथम स्थितिकाण्डकका घात करते हुए उस स्थितिकाण्डकके साथ पहले बढ़ाये गये द्रव्यप्रमाण द्रव्यको जघन्य विकृतिगोपुच्छाके ऊपर प्रक्षिप्त करके फिर पूर्व विधिके अनुसार दूसरे आदि काण्डकोंका घात करके एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है। इस क्रमसे दूसरे स्थितिकाण्डकसे लेकर अधिक द्रव्यको पुनः पुनः मिलाकर द्विचरम स्थितिकाण्डकके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाई गई विकृतिगोपुच्छा भी उत्कृष्टपनेको प्राप्त हो गई। ६२९२. अब प्रकृतिगोपुच्छाको बढ़ाते हैं जो इस प्रकार है-जघन्य प्रकृतिगोपुच्छाको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे चार पुरुषोंकी अपेक्षा पांच बृद्धियोंके द्वारा उत्कृष्ट प्रकृतिगोपुच्छाके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये। शंका-विकृतिगोपुच्छाके उत्कृष्ट रहते हुए एकमात्र प्रकृतिगोपुच्छाको ही जघन्यपना कैसे प्राप्त हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि सब स्थितियोंको गोपुच्छाओंके उत्कृष्ट रहते हुए भी एक ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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