Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२८७ गुणिदकम्मंसियचरिमफालीए सह सरिसं जादं ति । पुणो एव' वड्दूिण द्विदेण अण्णेगो गुणिककम्म सिओ ईसाणदेवेसु णसयव दमुक्कस्सं करेमाणो सादिरेगेग-गोवच्छाए ऊणमुक्कस्सदव्व करियागतूण तिरिक्खेसुववन्जिय दाणेण दाणाणुमोदेण वा तिपलिदोवमिएसुववण्णो कथं तिरिक्खाणं दाणाणुमोदं मोत्तण दाणसंभवो ? ण, दादुमिच्छाए तत्थ वि संभवं पडि विरोहाभावादो। अत्रोपयोगी श्लोक :
सदा संप्रतीक्ष्यातिथीनन्नकाले नरो वल्भते चेदलाभेऽपि तेषाम् ।
"भवेत्स प्रदानाप्रदानं हि सन्तः प्रदाने प्रयत्नं नृणामामनंति ॥ ५॥) ६ २९९. पुणो समऊणव छावडीओ भमिय मिच्छत्तं गतण पुव्वकोडीए उववन्जिय संजमं सम्मत्तं च जुगवं घेत्तण चारित्तमोहणीयं खवद ण चरिमफालिं धरेदूण द्विदो सरिसो। संपहि इमणप्पणो ऊणिददव्वं परमाणुत्तरादिकमण वड्ढावेदव्वं । एवं वड्विदण द्विदेण अण्णेगो ईसाणदेव सु उक्कस्सदव्व करमाणो सादिरेगगोवच्छाए ऊणं करियागंतूण तिसु पलिदोवम सुवव जिय वि समयूणवेछावट्ठीओ भमिय चारित्तमोहणीयं खविय चरिमफालिं धरेदण हिदो सरिसो। एवं खविदकम्मंसियस्स भणिदविहाणेण ओदारिय गेण्हिदव्व । गुणितकर्मा शकी अन्तिम फालिके द्रव्यके समान द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये । फिर इस प्रकार बढ़ा कर स्थित हुए इस जीवके समान अन्य एक जीव है गुणितकर्मा शकी विधिसे आकर जो ईशानस्वर्गके देवोंमें नपुंसकवेदके द्रव्यको उत्कृष्ट कर रहा है और जो उत्कृष्ठ द्रव्यको समधिक एक एक गोपुच्छा न्यून करके आया फिर तियचोंमें उत्पन्न होकर दानसे या दानकी अनुमोदनासे तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ।
शंका-तियेचोंके दानकी अनुमोदनाके सिवा दान देना कैसे सम्भव है ?
समधान-नहीं, क्योंकि देनेकी इच्छा होने पर वहां भी दान देनेकी सम्भावना मान लेने में कोई विरोध नहीं है । इस विषयमें यह श्लोक उपयोगी है
अतिथिलाभ सम्भव न होने पर भी यदि मनुष्य भोजतके समय सदा अतिथियोंकी प्रतीक्षा करके ही भोजन करता है तो भी वह दाता है, क्योंकि सन्त पुरुषोंने दान देनेके लिये किये गये मनुष्योंके प्रयत्नको ही सच्चा दान माना है॥५॥
६२९९. फिर जो एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर मिथ्यात्वमें गया । अनन्तर पूर्वकोटिकी आयुके साथ उत्पन्न होकर सम्यक्त्व और संयमको एकसाथ प्राप्त हुआ अनन्तर जो चारित्रमोहनीयकी क्षपणा कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित है। अब इसके अपने कमती द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान अन्य एक जीव है जो ईशानस्वर्गके देवोंमें द्रव्यको उत्कृष्ट करता हुआ साधिक गोपुच्छासे न्यून करके आया और तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न होकर फिर दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करता
जो चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करके अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है। इस प्रकार क्षपिवकर्मा शकी कही गई विधिके अनुसार उतार कर ग्रहण करना चाहिये।
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