Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ६२९४ किंफलमदं सुत्तं ? समयूणावलियमत्तफहयपडिसेहफलं । उवरि भण्णमाणखवणसुत्तादो चैव दुचरिमसमयसव दम्मि चरिमफाली अस्थि ति णव्वदे । तेण तत्तो चेव समयूणावलियम तफयाणं अभावो सिज्झदि त्ति गाढव दव्वमिदं सुत्तं ? ण, अंतरिदसुत्तेसु एत्थाणिय भण्णमाणेसु सिस्साणं मदिवामोहो होदि त्ति तप्पडिसेहट्ठम दस्स पवुत्तीदो।।
® अपच्छिमस्स हिदिखंडयस्स चरिमसमयजहएणपदममादि कादूण जाव उकस्सपदेससंतकम्मणिरतराणि हाणाणि ।
२९५. दुचरिमादिद्विदिखंडयपडिसेहफलो अपच्छिमस्स हिदिखंडयस्से त्ति णिद्द सो। दुचरिमादिफालीणं पडिसेहफलो चरिमसमयणि सो। गुणिदचरिमफालिपडिसेहफलो जहण्णपदणि सो। एदं जहण्णपदमादि कादण जाव तस्सेव उक्कस्सपदेससंतकम्मति णिरंतराणि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि होति, विरहकारणाभावादो। संपहि खविदकम्मसियलक्खणेणागतण तिपलिदोवमिएसुववजिय वेछावहीए अंतोमुहुत्तावसेसाए मिच्छत्तं गतूण पुवकोडीए उववजिय णव'सयव दोदएण चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुडिय णवंसयवदचरिमफालिं धरेदूण हिदं गेण्हिय ढाणवरूवणं
$ २६४ शंका-इस सूत्रका क्या कार्य है ? समाधान-एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंका निषेध करना इस सूत्रका कार्य है।
शंका-आगे कहे जानेवाले क्षपणाविषयक सूत्रसे ही सवेदभागके द्विचरम समयमें अन्तिम फालि पाई जाती है यह बात जानी जाती है, इसलिए उसी सूत्रसे ही एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंका अभाव सिद्ध होता है अतएव इस सूत्रके आरम्भ करनेकी कोई आवश्यकता नहीं रहती ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वह सूत्र बहुत अन्तरके बाद आया है । अब यदि उसे यहाँ लाकर कहा जाता है तो शिष्योंको मतिव्यामोह होना सम्भव है, इसलिये उसके प्रतिषेधके लिए अर्थात् एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके निषेधके लिए इस सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है यह सिद्ध होता है।
* अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम सययवर्ती जघन्य द्रव्यसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान होते हैं।
६२९५. 'अन्तिम स्थितिकाण्डकके' इस पद द्वारा द्विचरम आदि स्थितिकाण्डकोंका निषेध किया है । द्विचरम आदि फालियोंका निषेध करनेके लिए 'अन्तिम समय' यह पद दिया है । गुणितकर्मा शकी अन्तिम फालिका निषेध करने के लिए 'जघन्य' पदका निर्देश किया है। इस जघन्य द्रव्यसे लेकर उसीके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर प्रदेशसत्कर्म स्थान होते हैं, क्योंकि कोई विरहका कारण नहीं पाया जाता । अव कोई एक जीव क्ष पितकर्मा'शकी विधिसे आया, तीन पल्यकी आयु वालोंमें उत्पन्न हुआ, अनन्तर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करता रहा । अनन्तर अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर मिथ्यात्वमें जाकर नपसकवेदके उदयके साथ एक पर्वकोटिकी आयवालोंमें उत्पन्न फिर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो नपुसकवेदकी अन्तिम फालिको धारण करके
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