Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
तिकालविसयाणं वड्डि-हाणीणमभावादो ।
२६४. एदेण सह अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ एगगोबुच्छा विसेसेणूणुकस्सदव्वं करिय पुब्वविहाणेणागंतूण समयणवेछावडीओ भमिय विसंजोएदूण एगणिसेगं दुसमयकालं धरेण द्विदो सरिसो । संपहि एदेण अध्पणो ऊणोकददव्वे वड्डाविदेण सह अण्णेगो सत्तमपुढवीए ऊणीकदगोवच्छाविसेसो भमिददुसमऊणवेछाबडि सागरोवमो धरिददुसमयकालेग णिसेगो सरिसो ।
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२६३
$ २६५. एण कमेण वेछावडीओ ओदारेदव्वाओ जाव सत्तमा पुढवीए उक्कस्तदव्वं करियागंतूण दोतिण्णिभवग्गहणणि तिरिक्खेसुववजिय पुणो देवसुववज्जिय सम्मत्तं घे तूण अनंताणुबंधिचक्क विसंजोइय संजुत्ता होण सम्मत्तं पडिवज्जिय सव्वजहणमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो विसंजोएद्ण दुसमयकाल मेगणिसेगं धरेदूण हिदो ति । संपहि एदेण अण्णेगो णारगउकस्सदव्वमधापवत्त भागहारेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमेतदव्वसंचयं करिय आगंतूण तिरिक्खेसु देवसु च उववजिय सम्मतं घेतूण पुणो अनंताणुबंधिच विसंजोय दुसमयकाल मेगणिसेगं धरिय हिदो सरिसो । पुणो इमेणपणो ऊणीकददव्वं वड्डाविय पुणो णेरइएण सह संधाणं करिय पुणो तत्थ विय वढावेदव्वं जावु कस्सदव्वं जादं ति । एवमेगफद्दयमस्सिदूण अणंताणं द्वाणाणं परूवणा कदा |
हानिसे रहित होते हैं ।
§ २६४. इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य गुणितकर्माश जीव है जो एक गोपुच्छाविशेषसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके पूर्व विधिसे आकर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है। अब अपने कम किये गये द्रव्यको बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथ्वी में गोपुच्छा विशेषसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके और दो समय कम दो छ्यासठ सागर कालतक भ्रमण कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है ।
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९ २६५. इस क्रम से दो छयासठ सागर काल तब तक उतारते जाना चाहिए जब जाकर सातवीं पृथ्वीमें उत्कृष्ट द्रव्य करनेके बाद आकर और तिर्यंचोंके दो तीन भव धारण कर फिर देवोंमें उत्पन्न हुआ । पश्चात् सम्यक्त्वको ग्रहण कर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की । फिर उससे संयुक्त होकर और सम्यक्त्वको प्राप्त हो सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा फिर विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित हुआ । अब इस जीवके समान अन्य एक जीव है जो, नारकियोंके उत्कृष्ट द्रव्यमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग दो जो एक भाग प्राप्त हो, उतने द्रव्यका संचय कर और आकर तिर्यचों व देवों में उत्पन्न हुआ । फिर सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है । फिर इसके कम किये गये द्रव्यको बढ़ाकर और नारकीके साथ मिलान कर और वहां ठहराकर अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाता जाय । इस प्रकार एक स्पर्धककी अपेक्षा अनन्त स्थानोंका
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