Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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मा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २५९. संपहि एसो पंचहि वड्डीहि वडावेदव्वो जावप्पणो जहण्णदव्यमधापवत्तभागहारेण गुणिदमेत्तं जादं ति । संपहि एदेण अवरेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असणिपंचिंदिएसु देवेतु च उववज्जिय' सम्मत्तं घेत्तण अणंताणु०चउक विसंजोइय दुसमयकालहिदिमेगणिसेग धरिय द्विदो सरिसो।
२६०. संपहि एत्थतणपगदि-विगिदिगोवच्छाओ अपुव्वगुणसेढिगोवुच्छा च मिच्छत्तस्सेव वड्ढावेदव्वाओ जाव सत्तमाए पुढवीए अणंताणुबंधिदव्यमुक्कस्सं करिय तिरिक्खेसुववज्जिय पुणो देवेसुववन्जिय सम्मत्तं घेत्तण अणंताणु०चउक्क विसंजोइय दुसमयकालहिदिमेगणिसेग धरिय द्विदो त्ति ।
२६१ संपहि इमेण अण्णेगो सत्तमाए पुढवीए अंतोमुहुत्तेणुक्कस्सदव्वं होहदि त्ति विवरीयं गतूणप्पणो उक्कस्सदरमसंखेजभागहीणं काऊण सम्मत्तं पडिवञ्जिय पुणो अणंताणु०चउक विसंजोएदूणेगणिसेग दुसमयकालं धरेदूण हिदो सरिसो। एदं दव्वं परमाणुत्तरकमेण अप्पणो उकस्सदव्यं ति वड्ढावेदव्वं । एवम गफद्दयविसयाणमणंताणं ठाणाणं परवणा कदा।
६२६२. संपहि दुसमयणावलियमेत्तफद्दयविसयहाणाणं परूवणाए कीरमाणाए जहा मिच्छत्तस्स परूवणा कदा तहा परवेयव्वा । संपहि चरिमफालिपरूवणकमो
६२५९. अब इस द्रव्यको पाँच वृद्धियों के द्वारा अपने जघन्य द्रव्यको अधःप्रवृत्त भागहारसे गुणा करके जितना प्रमाण हो उतना प्राप्त होनेतक बढ़ाते जाना चाहिये । अब इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय और देवोंमें उत्पन्न होकर फिर सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है।
६२६०. अब यहाँकी प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणकी गुणश्रोणि पिचळाको मिथ्यात्वके समान तब तक बढाना चाहिये जब जाकर सातवीं प्रथिवीमें अनन्तानुबन्धी चारके द्रव्यको उत्कृष्ट करके तिर्यचोंमें उत्पन्न हो फिर देवोंमें उत्पन्न हो और वहाँ सम्यक्त्वको ग्रहणकर फिर अनन्तानुबन्धी चारको विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारणकर स्थित होवे।
६२६१. अब इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथिवीमें अन्तमुहूर्तमें उत्कृष्ट द्रव्य होगा किन्तु लौटकर और अपने उत्कृष्ट द्रव्यको असंख्यात भागहीन करके सम्यक्त्वको प्राप्त होकर फिर अनन्तानुबन्धीचतुष्कको विसंयोजना करके दो समयकी स्थितिषाले एक निषेकको धारण करके स्थित है। फिर इस द्रव्यको एक परमाणु अधिकके क्रमसे अपना उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार एक स्पर्धकके विषयभूत अनन्त स्थानोंका कथन किया।
२६२. अब दो समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके विषयभूत स्थानोंका कथन करने पर जिस प्रकार मिथ्यात्वका कथन किया है उसी प्रकार कथन करना चाहिये।
1. आप्रतौ 'देवेसु च एत्थुववजिय' इति पाठः ।
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