Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं विसंजोइजमाणअणंताणुबंधीणं पदेसग्गं किं सव्वघादीसु चेव संकमदि आहो देसवादीसु चेव उभयत्थ वा ? ण पढमपक्खो, चरित्तमोहणिजे कम्मे बज्झमाणे संते तस्स अपडिग्गहत्तविरोहादो। ण विदियपक्खो वि, तत्थ वि पुव्वुत्तदोससंभवादो। तदो तदियपक्खेण होदव्वं, परिसिहत्तादो । एवं च हिदे संते संजुत्तावत्थाए सव्वघादीणं चेव दवेण अणंताबंधिसत्वेण परिणमेयव्वं, अण्णहा अधापवत्तभागहारस्स आणतियप्पसंगादो । णासंखेजत्तं, अणंताणुबंधिदव्वस्स देसघादिपदेसग्गादो असंखेजगुणहीणत्तप्पसंगादो। ण च एवं, उवरिभण्णमाणअप्पाबहुअसुत्तेण सह विरोहादो त्ति ? ण एस दोसो, अधापवत्तभागहारो सजाइविसओ चेव, असंखेजो त्ति अब्भुवगमादो । देसघादिकम्मेहिंतो सव्वधादिकम्माणं संकममाणदव्वस्स पमाणपरूवणा किण्ण कदा ? ण, तस्स पहाणत्ताभावादो।
६२५६. संपहि एत्थ जहण्णदव्वपमाणाशुगमे कीरमाणे पढमं ताव पयडिगोवुच्छपमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा-दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपवद्ध अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण अंतोमुहुत्तोवट्टिदअधापवत्तेण व छावट्ठिअभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवड्डगुणहाणीए च ओवट्टिदे पयडिगोवुच्छा आगच्छदि । संपहि विगिदिगोवुच्छा पुण दिवड्डगुण
शंका-विसंयोजनाको प्राप्त होनेवाले अनन्तानुबन्धियोंके प्रदेश क्या सर्वधाती प्रकृतियों में ही संक्रान्त होते हैं या देशघाति प्रकृतियों में ही संक्रान्त होते हैं या दोनों प्रकारकी प्रकृतियोंमें संक्रान्त होते हैं ? इनमेंसे पहला पक्ष तो ठीक नहीं, क्योंकि चरित्रमोहनीयकर्मका बन्ध होते समय उसे अपग्रह माननेमें विरोध आता है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहां भी पूर्वोक्त दोष सम्भव है। इसलिये परिशेष न्यायसे तीसरा पक्ष होना चाहिये । ऐसा होते हुए भी अनन्तानुबन्धीके पुनः संयोगकी अवस्थामें सर्वघातियोंके ही द्रव्यको अनन्तानुबन्धीरूपसे परिणमना चाहिये, अन्यथा अधःप्रवृत्तभागहारको अनन्तपनेका प्रसंग प्राप्त होगा। यदि कहा जाय कि वह असंख्यातरूप रहा आवे सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनन्तानुबन्धीका द्रव्य देशघातिद्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर आगे कहे जानेवाले सूत्रसे विरोध आता है।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अधःप्रवृत्त भागहार अपनी जातिको विषय करता हुआ ही असंख्यातरूप है, ऐसा स्वीकार किया गया है।
शंका-देशघाति कर्मोशमेंसे सर्वघाति कर्मों में संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके प्रमाणका कथन क्यों नहीं किया?
समाधान नहीं, क्योंकि उसकी प्रधानता नहीं है।
६२५६. अब यहां पर जघन्य द्रव्यके प्रमाणका विचार करते समय पहले प्रकृति गोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं जो इस प्रकार है-डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अधःप्रवृत्तभागहार, दो छयासठ सागरके भीतर नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और डेढ़ गुणहानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर प्रकृत्तिगोपुच्छा आती है।
१. ता०प्रती एवं चरि (हि) दे आ०प्रतौ ‘एवं च रिदे' इति पाठः ।
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