Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ____६ २७७. संपहि विगिदिगोवुच्छापमाणे इच्छिञ्जमाणे दिवड्डमवणिय चरिमफालिभागहारे ठविदे विगिदिगोवुच्छा आगच्छदि । एवं विहपयडि-विगिदिगोवुच्छाओ अपुव्व-अणियट्टिगुणसेढिगोवच्छाओ च धेरण णवंसयव दस्स जहण्णयं पदं।
तदो पदेसुत्तरं ।
६ २७८. तदो जहण्णसंतफम्मादो ओकडणवसेण पदेसुत्तरे संतकम्मे संते अण्णमपुणरुत्तहाणं होदि । एदं सुत्तं देसमासियं ति कड्ड दुपदेसुत्तर-तिपदेसुत्तरादिअणंताणं णिरंतरढाणाणं परवणा कायव्वा ।
* णिरतराणि हाणाणि जाव तप्पाओग्गो उकसो उदो ति ।
६ २७९. तिण्डं पलिदोवमाणं वेछावहिसागरोवमाणं देसूणपुव्वकोडीए च समयरचणं काऊण णवंसयवेदहाणाणं परूवणा कीरदे । तं जहा—जहण्णदव्वम्मि परमाणुत्तरकमेण एगगोवुच्छविसेसे विज्झाददव्वेणब्भहिए वड्डिदे अणंताणि णिरंतरट्ठाणाणि उप्पजंति । एवं वड्डिदूच्छिदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेण समयूणवेछावट्ठीओ अंतोमुहुत्तूणाओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण मणुसेसुववजिय पुणो जोणिणिक्खमणजम्मणेण' अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्साणि गमिय सम्मत्तं संजमं च
$ २७७. अव विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण लानेको इच्छा होने पर पिछले प्रकृतिगोपुच्छाके भागहारमेंसे डेढ़ गुणहानिको निकालकर उसके स्थानमें अन्तिम फालिको भागहाररूपसे स्थापित करने पर विकृतिगोपुच्छा आती है। इस प्रकार प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा, अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा और अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा इन चार गोपुच्छाओंको मिलाने पर नपुंसकवेदका जघन्य सत्त्वस्थान होता है।
* जघन्य द्रव्यमें एक प्रदेश मिलाने पर दसरा स्थान होता है।
६२७८. उससे अर्थात् जघन्य सत्कर्मसे अपकर्षणाके कारण एक प्रदेश अधिक सत्कर्मके होने पर एक दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। चूंकि यह सूत्र देशामर्षक है इसलिये इसीप्रकार दो प्रदेश अधिक, तीन प्रदेश अधिक आदि अनन्त निरन्तर स्थानोंका कथन करना चाहिये।
ॐ इस प्रकार तद्योग्य उत्कृष्ट उदय प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान होते हैं।
६२७९. तीन पल्य, दो छथासठ सागर और कुछ कम एक पूर्वकोटि इन सबके समयोंको एक पंक्तिरूपसे रचकर नपुंसकवेदके स्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैं-जघन्य द्रव्यमें उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे विध्यातद्रव्यसे अधिक एक गोपुच्छविशेष बढ़ाने पर अनन्त निरन्तर स्थान उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आया। भनन्तर एक समय कम दो छयासठ सागरमेंसे अन्तर्मुहूर्त कम कालतक भ्रमण करता रहा । पश्चात् मिथ्यात्वमें जाकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ योनिसे निकलनेरुप जन्मसे
1. वा प्रतौ 'णिक्कमणजम्मणेण' इति पाः।
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