Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 277
________________ २६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ २६९. संपहि एत्थ वहाविजमाणे तस्समयम्मि' गदगुणसंकमदव्वं एगगोवुच्छदव्वं च वड्ढावेदव्यं । एवं वड्डिदूण हिदेण अवरेगो अधापवत्तचरिमसमयहिदो सरिसो।। ६ २७०. संपहि एत्थ वड्डाविजमाणे तस्समयम्मि गदविज्झाददब्वमेत्तं त्थिवुक्कसंकमेण गदगोवुच्छदव्वं च वड्ढावेदव्व । एवं वड्डिदेण अण्णेगो दुचरिमसमयअधापवत्तो सरिसो। एवमोदारेदब जाव वेछावद्विपढमसमओ ति । पुणो तत्थतणदव्वं वडाबेदव्व जावप्पणो जहण्णदव्बमधापवत्तभागहारेण गुणिदमेतं जादं ति । संपहि एदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण देवेसुववजिय सम्मत्तं घेत्तण अणंताणुबंधिविसंजोयणाए अब्भुडिय अधापवत्तकरणचरिमसमयद्विदो सरिसो । संपहि एदम्मि दव्वे विज्झादेण संकेतदव्व गोवुच्छदव्वं च वड्ढाव दव्व। पुणो एदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण सम्मत्तं पडिवजिय अधापवत्तदुचरिमसमयहिदो सरिसो त्ति । एवं जाणिदूण हेहा ओदारेदव्वंजाव पढमसमयउवसमसम्माइहि त्ति । ६२७१. संपहि एत्थ पढमसमयसम्मादिहिम्मि वडाविजमाणे तस्समयम्मि गदविज्झाददव्व स्थिवुक्कगुणसेढिगोवुच्छादव पुणो चरिमसमयमिच्छादिहिगुणसेढि ६२६९. अब यहाँ बढ़ाने पर उस समयमें पर प्रकृतिको प्राप्त हुए गुणसंक्रमके द्रव्य को और ५क गोपुच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अधःवृत्तकरणके अन्तिम समयमें स्थित है। २७०. अब यहाँ पर द्रव्यके बढ़ाने पर उस समयमें पर प्रकृतिको प्राप्त हुए विध्यातसंक्रमणके द्रव्यको और स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए गोपुच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अधःप्रवृत्तकरणके उपान्त्य समयमें स्थित है। इस प्रकार दो छयासठ सागरके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। फिर वहाँ स्थित जीवके द्रव्यको, अपने जघन्य द्रव्यको अधःप्रवृत्त भागहारसे गुणा करने पर जितना प्रमाण हो उतना होने तक, बढ़ाना चाहिये। अब इसके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकाशकी विधिसे आकर देवोंमें उत्पन्न हो सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके लिये उद्यत होकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें स्थित है। अब इस द्रव्यमें विध्यातके द्वारा पर प्रकृतिमें संक्रान्त हुए द्रव्यको को और गोपरछाके दव्यको बढाना चाहिए । फिर इसके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त हो अधःप्रवृत्तकरणके उपान्त्य समयमें स्थित है। इस प्रकार जान कर उपशमसम्यग्दृष्टिके प्रथम समय तक नीचे उतारते जाना चाहिये। ६२७१. अब यहाँ प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके द्रव्यके बढ़ाने पर उस समय अभ्य प्रकृतिको प्राप्त हुए विध्यातसंक्रमणके द्रव्यको, स्तिवुक संक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुए गुणश्रेणिगोपुच्छाके द्रव्यको तथा अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको 1. भा० प्रती 'तस्स समयम्मि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404