Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ बहुसो त्ति बुत्ते संखेजासंखेजाणं गहणं कायव्वं गाणंतस्स, सम्मत्त-संजम-संजमासंजमगहणवाराणमाणंतियाभावादो। सम्मत्त-संजमासंजमगहणवाराणं पमाणं पलिदो० असंखे भागो। संजमग्गहणवाराणं पमाणं बत्तीसं । अणंताणुबंधिविसंजोयणवारा वि असंखेजा चेव । तेण बहुसो त्ति वुत्ते संखेजासंखेजाणं चेव गहणं कायव्वं । वेयणाए व एत्तिया चेव होंति त्ति परिच्छेदो किण्ण कदो ? ण, संपुण्णेसु सम्मत्त-संजमसंजमासंजमकंडएसु भमिदेसु मोक्खगमणं मोत्तूण सम्मत्तगुणेण वेछावट्ठिसागरोवमेसु परिभमणाणुववत्तीदो। तेणेत्थ केत्तिएण वि ऊणत्तजाणावणटुं बहुसो त्ति जिद्द सो कदो। चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता त्ति किमट्ठ परिच्छेदं कादूण वुच्चदे ? चदुक्खुत्तो उवसमसेढिमारुहिय उवसामिदकसाओ वि असंजमं गंतूणं वेछावहिसागरोवमाणि परिभमदि ति जाणावणटुं । एत्थुवजंतीओ गाहाओ
सम्मत्तुत्पत्ती वि य सावयविरदे अणंतकम्मसे ।
दसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते ।। २ ।। लेना चाहिये।
यहाँ 'अनेकबार' इस पदसे संख्यात और असंख्यातका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमको ग्रहण करनेके बार अनन्त नहीं होते । सम्यक्त्व और संयमासंयमको ग्रहण करनेके बारोंका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भाग है, संयमको ग्रहण करनेके बारों का प्रमाण बत्तीस है और अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करने के बार भी असंख्यात ही हैं । अर्थात् एक जीव मोक्ष जाने तक अधिकसे अधिक इतनेबार ही सम्यक्त्वादिका धारण और अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन कर सकता है। अतः अनेक बार इस पदसे संख्यात और असंख्यातका ही ग्रहण करना चाहिये ।।
शंका-वेदनाखण्डकी तरह यहां भी इतने बार ही सम्यक्त्वादिक होते हैं ऐसा नियर्ण क्यों नहीं कर दिया ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्पूर्ण सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम काण्डकोंमें भ्रमण कर चुकनेपर मोक्ष गमनको छोड़कर सम्यक्त्व गुणके साथ एक सौ बत्तीस सागर तक परिभ्रमण नहीं बन सकता । अतः यहाँ कुछ कम बतलानेके लिये अनेक बार ऐसा कहा ।
शंका-चार बार कषायोंका उपशमन करे इस प्रकार निर्णयपूर्वक कथन क्यों किया ? अर्थात् जैसे सम्यक्त्वादिके लिये कोई परिमाण न बतलाकर अनेक बार कह दिया है वैसे यहाँ न कहकर चार बार ही क्यों बतलाया ?
समाधान-चार बार उपशमणिपर चढ़कर कपायोंका उपशम कर देनेवाला असंयमी होकर एक सौ बत्तीस सागर तक परिभ्रमण करता है यह बतलानेके लिये कहा है। इस सम्बन्धमें उपयोगी गाथा
सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, श्रावक, संयमी, अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजक, दर्शनमोह क्षपक, कषायोंका उपशामक, उपशान्तमोही, क्षपकश्रेणिवाला, क्षीणमोही और जिन इनके
१. ता प्रतौ 'णिजारण। [लदो] सम्मत्तं' इति पाठः ।
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