Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१५५
भागहार असंख्यातगुणा है, अतः जब कि विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य परप्रकृतिरूप परिणमन करनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है तो वह विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य प्रकृतिगोपुच्छाके द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होना ही चाहिये, क्योंकि पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाला द्रव्य प्रकृतिगोपुच्छाका असंख्यातवां भाग है और जब विकृति गोपुच्छाका द्रव्य इसके असंख्यातवें भाग है तो वह प्रकृतिगोपुच्छाके असंख्यातवें भाग प्रमाण होगा ही। इसी प्रकार दूसरी आदि गोपुच्छाएं भी प्रकृतिगोपुच्छाओंके असं यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं। केवल वहाँ दूसरी आदि विकृतिगोपुच्छाओंका भागाहार उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है और इसलिये दूसरी आदि विकृतिगोपुच्छाओंका द्रव्य भी उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता जाता है। इस प्रकार हजारों स्थितिकाण्डकोंका पतन होने पर अपूर्वकरण समाप्त होता है। तथा आगे अनिवृत्तिकरणमें भी यही क्रम चालू रहता है। फिर क्रमशः मिथ्यात्वका स्थितिसत्कर्म असंझियोंके स्थितिबन्धके समान प्राप्त होता है । आगे भी संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका पतन होने पर स्थितिसत्कर्म क्रमशः चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान प्राप्त होता है। यहां सर्वत्र विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य वृद्धिंगत होता जाता है और भागहारका प्रमाण घटता जाता है। फिर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका पतन होने पर सत्कर्मकी स्थिति एक पल्य प्राप्त होती है । यहाँ सत्कर्म की स्थिति अन्तःकोडाकोडी नहीं रही किन्तु एक पल्य रह गई है, इसलिये यहां अन्तःकोडाकोडीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिको पल्यकम अन्तःकोड़ाकोड़ी की नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग दे देना चाहिये । तात्पर्य यह है कि पहले भागाहारमें जो अन्तःकोड़ाकोड़ीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि थी वह क्रमसे घटकर अब एक पल्यके अन्दर प्राप्त होनेवाली नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि भागहार है। इस प्रकार यहां जो विकृतिगोपुच्छा उत्पन्न होती है वह गुणसंक्रमभागहारके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि यहां भी गुणसंक्रमभागहारसे एक पल्यके भीतर प्राप्त होनेवाली नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है । इसके बाद स्थितिकाण्डकघात होता हुआ क्रमसे दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्म प्राप्त होता है। इसके पूर्व तक अब भी पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष है, इसलिये यहां भी विकृतिगोपुच्छा परप्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसके आगे यदि स्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिकाण्डकका घात करके जो स्थिति शेष रहती है उसमें नाना गुणहानियाँ यदि गुणसंक्रमभागहारकी अर्धच्छेद शलाकाओं और जघन्य परीतासंख्यातकी अर्धच्छेद शलाकाओंके जोड़प्रमाण होती हैं तो भी यहां विकृतिगोपच्छाका द्रव्य पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्य के असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर आगे भागहार घटता जाता है और विकृतिगोपच्छाका द्रव्य बढ़ता जाता है। इस क्रमके चालू रहते हुए जब स्थितिकाण्डकघातसे शेष रही स्थितिकी नानागुणहानिशलाकाएं गुणसंक्रम भागहारकी अर्धच्छेदशलाकाप्रमाण होती हैं तब विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके समान होता है क्योंकि यहां दोनोंकी भाजक और भाज्य राशियां समान हैं। अब इसके आगे स्थितिकाण्डकका घात होने पर उत्तरोत्तर विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण बढ़ने लगता है और पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाला द्रव्यका प्रमाण विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणसे उत्तरोत्तर घटने लगता है। यदि शेष रही स्थितिकी नाना गुणहानिशलाकाएं गुणसंक्रमभागहारकी एक कम अर्धच्छेदशलाकाप्रमाण होती हैं तो विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य पर प्रकृतिको प्राप्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org