Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं सम्मादिद्विदव्वण सरिसत्ताणुववत्तीदो । तेण जाणिजदे जहा दोण्हं सामित्ताणं ण सरिसत्तमिदि । ण, दवट्टियणयमस्सिदूण सरिसत्तपदुप्पायणादो। एसो विसेसो कत्तो णव्वदे १ ण, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तपयरणवसेणेव तदवगमादो। पञ्जवहियपरूवणादो वा तदवगमो। सो पुण किण्ण सुत्ते उच्चदे ? ण, तत्थ वक्खोणाइरियभडारयाणं वावारादो । दव्वहियणयवयणकलावो सुत्तं । पञ्जवडियवयणकलावो टोका । णेगमणयवयणकलाओ विहासा ति सव्वत्थ दहव्व।।
* दोण्ह पि एदेसि संतकम्माणमेगौं फद्दय ।
६ २४३. पदेसुत्तरं दुपदेसुत्तरं णिरंतराणि हाणाणि उक्कस्ससंतकम्मं ति एदेणेव सुत्तेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसंतकम्महाणाणं फद्दयत्त'मवगम्मदे। ण च णिरंतरट्ठाणेसु अंतरणिबंधणणाणमत्थित्त, विप्पडिसेहादो । तम्हा णिप्फलमिदं सुत्तमिदि १ ण, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसंतकम्महाणाणमेगं फहयमिदि दोण्हं संतकम्माणमंतराभावपदुप्पायणेण णिप्फलत्तविरोहादो। तं जहा–सम्मामिच्छत्तस्स उतर कर स्थित हुए जीवका द्रव्य प्रथम छयासठ सागरके अन्तिम समयवर्ती सायग्दृष्टिके द्रव्यके समान नहीं हो सकता है । इससे जाना जाता है कि दोनोंके स्वामी एक समान नहीं हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा दोनोंके स्वामियोंको एक समान कहा है।
शंका-यह विशेष किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके प्रकरणके वशसे ही यह विशेष जाना जाता है । अथवा पर्यायार्थिक प्ररूपणासे इस प्रकारका विशेष जाना जाता है।
शंका-तो फिर इस विशेषका कथन सूत्रमें क्यों नहीं किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि विशेषके कथनका व्याख्यान करना व्याख्यानाचार्योका काम है । तात्पर्य यह है कि संक्षिप्त वचनोंका समुदाय सूत्र कहलाता है, विस्तृत वचनोंका समुदाय टीका कहलाती है और मैगमरूप वचनोंका समुदाय विभाषा कहलाती है। यही कारण है कि सूत्रमें उभयगत विशेषताका व्याख्यान नहीं किया। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये।
ॐ इन दोनों ही सत्कर्मोंका एक स्पर्धक होता है।
२४३. शंका-जघन्य सत्कर्म स्थानसे लेकर एक प्रदेश अधिक, दो प्रदेश अधिक इस प्रकार उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान पाये जाते हैं। इस सूत्रके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मस्थानोंका एक स्पर्धक है यह बात जानी जाती है। यदि कहा जाय कि निरन्तर स्थानोंके रहते हुए भी उनका अस्तित्व अन्तरका कारण हो जाय, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है, अतएव यह सूत्र निष्फल है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मस्थानों का एक स्पर्धक है इस प्रकार यह सूत्र दोनों सत्कर्मों के अन्तरके अभावका कथन करता है, इसलिये इसे निष्फल नहीं माना जा सकता है। अब आगे इसी बातका खुलासा करते हैं-सम्यग्मिथ्यात्व
1. साप्रती -टाणा[णं] फइयत्त-' मा प्रतौ -हाणा फहयात-' इति पाठः। २. ता०प्रती -णिबंधणा हाणा) मत्थित इति पाठः।
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