Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
२५६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५
समओ चि । पुणो णवकबंधेणूणगुणसेढिगोवुच्छं वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव अपुव्वकरणावलियाए सुहुमणिगोदगोवच्छं पत्तो त्ति । पुणो एत्थ ट्ठविथ पुव्वविहाणेण वडाविय रहएण सह संघिय ओघुकस्सं ति वड्डाविदे खविदकम्म सियमस्सिदूण संतकम्मट्ठाणपरूवणा कदा होदि । संपहि गुणिदकम्म सियं पि अस्सिदूण संतकम्मट्ठाणाणं जाणिदूण परूवणा कायव्वा ।
* अता बंधि मिच्छत्तभगो ।
$ २५५. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णसामित्तं परूविदं तहा अणंताणुबंधीणं पि परूवेदव्व, खविदकम्म सियलक्खणेणागंतूण असष्णिपंचिदिएसु पुणो देवेसु च उववज्जिय अंतोमुहुत्ते गदे उवसमसम्मत्तं पडिवजिय पुणो अंतोमुहुत्रेण वेदगसम्मत्तं घेण बेछावडीओ भमिय अनंताणुबंधिचकं विसंजोपण दुसमयकालेगणिसेगधारणेण विसेसाभावादो । पञ्जवडियणए पुण अवलंबिजमाणे अस्थि विसेसो, देवे सुप्पञ्जिय उवसमसम्मत्ते गहिदे तत्थ अनंताणुबंधिचउक्क विसंजोजिय पुणो अंतोमुहुत्तेण मिच्छत्सं गंतूण अधापवत्तेण संकंत कसायदव्वं घेतूण वेछावहिसागरोवमाणि तद्दव्वगालणं करिय जहण सामित्तविहाणादो । एसो विसेसो सुतेणाणुवइडो कुदो णव्वदे !
ताणुबंधिच कस विसंजोयणपयडित्तण्णहाणुववत्तीदो। ण च विसंजोयणपयडोण
के प्राप्त होने तक मिध्यात्वकी तरह उतारना चाहिये । फिर नवकवन्धसे न्यून गुणश्रेणिगोपुच्छाको बढ़ाकर अपूर्वकरणकी आवलिके सूक्ष्म निगोदकी गोपुच्छाको प्राप्त होने तक उतारना चाहिये । फिर यहाँ ठहराकर और पूर्व विधिसे बढ़ाकर नारकीके साथ जोड़कर ओघ उत्कृष्ट के प्राप्त होने तक बढ़ाने पर क्षपितकर्माशकी अपेक्षा सत्कर्मस्थानका कथन समाप्त होता है । अब गुणितकर्माशकी अपेक्षा भी सत्कर्मस्थानोंका जानकर कथन करना चाहिये ।
* अनन्तानुबन्धियोंका भंग मिथ्यात्व के समान है ।
६ २५७. जिस प्रकार मिथ्यात्व के जघन्य स्वामीका कथन किया उसी प्रकार अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य स्वामीका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि क्षपितकर्माशकी विधि से आकर पहले संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें फिर देवोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त जाने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो फिर अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण कर और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है । परन्तु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर विशेषता है, क्योंकि देषों में उत्पन्न होकर उपशमसम्यक्त्व के प्रहण करने पर वहाँ अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना करके फिर अन्तर्मुहूर्तमें मिथ्यात्व में जाकर और अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा संक्रमणको प्राप्त हुए कषायके द्रव्यको ग्रहण कर फिर दो छयासठ सागर कालतक उसके द्रव्यको गलाकर जघन्य स्वामित्वका कथन किया है ।
शंका - यह विशेषता सूत्रमें नहीं कही फिर कैसे जानी जाती है ?
समाधान — यदि ऐसा न माना जाय तो अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृति नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org