Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गददव्वेण चरिमसमए गुणसंकमेण गददव्वेण य ऊणमुक्कस्सदव्व करिय व छावडीओ भमिय दुचरिमफालिं धरिय डिदो सरिसो। संपहि एसो अप्पणो ऊणीकददव्वमेत्तं परमाणुत्तरकमण दोहि वड्डीहि वड्डाव दव्यो । एवं वह्रिदेण अवरेगो' चरिमसमयणेरइओ गुणसंक्रमेण थिउक्कसंकमण य गददव्वेणूणमुक्कस्सं कादूण वछावट्ठीओ भमिय तिचरिमफालिं धरिय विदो सरिसो। एसो वि अप्पणो ऊणीकददव्वमत्ताए। वड्डावदव्यो। एवं णेरइयचरिमसमयम्मि इच्छिददव्यमणं करिय आगदं संपधियऊणीकददव्व वड्डाविय अव्वामोहेण ओदारेदव्व जाव चरिमसमयणेरइयओघकस्सदव्व पत्तं ति । पुणो एत्थ पुणरुत्तट्ठाणाणि अवणिय अपुणरुत्तट्ठाणाणं गहणं कायव्व।
एवं मिच्छत्तस्स सामित्तपरूवणा कदा । * सम्मामिच्छत्तस्स जहएणयं पदेससंतकम्म कस्स । ६ १९०. सुगमं ।
* तथा चेव सुहमणिगोदेसु कम्मट्ठिदिमच्छिदूण तदो तसेसु संजमासंजमं संजम सम्मत्तं च बहुसो लद्ध ण चत्तारि वारे कसाए उवसामेद ण वेछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदण मिच्छत्तं गदो। दीहाए अन्तिम फालिके उत्कृष्ट द्रव्यको धारण करके स्थित है सो इसके साथ एक अन्य जीव समान है जो नारकियोंके अन्तिम समयमें स्तिवुक संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यसे तथा अन्तिम समयमें गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके द्विचरम फालिको धारण करके स्थित है। अब इसने जितना द्रव्य कम किया हो उतने द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा बढ़ावे। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो नारकियोंके अन्तिम समयमें गुणसंक्रम और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके त्रिचरिम फालिको धारण करके स्थित है। इसने भी अपना जितना द्रव्य कम किया हो उतनेको यह बढ़ा लेवे । इस प्रकार नारकीके अन्तिम समयमें इच्छित द्रव्यको कम करके आये हुए और इस समय कम किये हुए द्रव्यको बढ़ाकर व्यामोहसे रहित होकर नारकीके अन्तिम समयमें ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। फिर यहां पुनरुक्त स्थानोंको छोड़कर अपुनरुक्त स्थानोंका ग्रहण करना चाहिये।
इस प्रकार मिथ्यात्वके स्वामित्वका कथन किया। सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है। $ १९:. यह सूत्र सुगम है।
जो उसी प्रकार कर्मस्थितिप्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोदियोंमें रहा। फिर त्रसोंमें संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको अनेक बार प्राप्त करके चारबार कषायोंका उपशम कर और दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन कर
१. ता०प्रतौ 'वडिदे णवरि अवरेगो' इति पाठः । २. आ० प्रती '-दव्वमेत्त' इति पाठः ।
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