Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुग्विल्लवड्डिदव्वं पावदि । पुणो परमाणुत्तरवहिदव्वमिच्छामो त्ति उवरिल्लेगरूवधरिदं हेट्ठा विरलिय पुणो तम्मि चेव विरलणरूवं पडि समखंडं करिय दिण्णे एक्कक्कस्स रूवस्स एगेगपरमाणुपमाणं पावदि । पुणो एदेसु उवरिमविरलणरूवधरिदेसु पक्खित्तेसु जा भागहारपरिहाणी होदि तं वत्तइस्सामो-हेटिमविरलणरूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स अणंतिमभागो आगच्छदि । एदम्मि जहण्णपरित्ताणंतादो सोधिदे सुद्धसेसमुक्कस्सअसंखेजासंखेजरूवस्स अणंतेहि भागेहि अब्भहियं होदि । जहण्णपरित्ताणंतादो हेडिमा इमा संखे त्ति असंखेज्जा । संपहि जाव एदे एगरूवस्स अणंता भागा ण झीयंति ताव छेदभागहारो होदि । तेसु सव्वेसु परिहीणेसु समभागहारो होदि । एवमसंखेजभागवड्डीए ताव वढावेदव्वं जावंगगोवुच्छविसेसो एगसमयमोकड्डिद्ग विणासिज्जमाणदव्वं विज्झादेण संकामिददव्वं च मिच्छत्तादो विज्झादसंकमेणागच्छमाणदव्वेण परिहीणं वड्डिदं ति ।।
२१६. पुणो एदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण समयणवेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं' दुसमय कालट्ठिदियं धरेदूण द्विदो सरिसो । संपहि पुव्विलं मोत्तूण एवं दव्वं परमाणुत्तरादिकमेण एक परमाणु अधिक वृद्धिरूप द्रव्य लाना इष्ट है, इसलिए ऊपरके एक अंकके प्रति जो राशि प्राप्त है उसका विरलन करके और उसी विरलित राशिको समान खण्ड करके विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति देयरूपसे देने पर एक एकके प्रति एक-एक परमाणु प्राप्त होता है। फिर इनको उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिमें मिला देने पर जो भागहारकी हानि होती है उसे बतलाते हैं-एक अधिक नीचेका विरलन समाप्त होने पर यदि भागहारमें एककी हानि होती है तो ऊपरके विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी इसप्रकार राशिक करके इच्छा राशिको फलराशिसे गुणाकर फिर उसमें प्रमाण राशिका भाग देने पर एकका अनन्तवां भाग प्राप्त होता है। इसे जघन्य परीतानन्तमेंसे घटाने पर जो शेष बचता है वह एकका अनन्त बहुभाग अधिक उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होता है । यह संख्या जघन्य परीतानन्तसे कम है, इसलिये इसका अन्तर्भाव असंख्यातमें होता है । अब जब तक इस एकके ये अनन्त बहभाग गलित नहीं होते तब तक छेद भागहार होता है। और । घट जाने पर समभागहार होता है। इस प्रकार असंख्यातभागवद्धिके द्वारा उत्तरोत्तर तब तक द्रव्य बढ़ाते जाना चाहिये जब तक एक गोपुच्छविशेष, एक समयमें अपकर्षण द्वारा विनाशको प्राप्त हुआ द्रव्य और मिथ्यात्वमेंसे विध्यात संक्रमणद्वारा आनेवाले द्रव्यसे हीन उसी विध्यातसंक्रमणद्वारा संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य वृद्धिको नहीं प्राप्त हो जाता।
६२१६. फिर इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर, मिथ्यात्वमें जाकर उत्कृष्ट उद्वलना कालतक उद्वेलना कर दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है । अब पहलेके जीवको छोड़ दो और इस जीवके द्रव्यको एक परमाणु अधिक आदिके
ता. प्रतौ 'एगणिसेग' इति पाठः ।
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