Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
२००
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वि संजदगुणसेढिगोवुच्छा, कत्थ वि संजदासंजदगुणसेढिगोवुच्छा, कत्थ वि सत्याणसम्माइद्विगोवुच्छा स्थिवृक्कण संकमिदि ति एसो विसेसो जाणिदव्यो। एदम्हादो हेडा ओदारिजमाणे सम्मामिच्छादिहिम्मि स्थिवुक्कसंकमण गदगोवच्छा चेव वडावेदव्वा, तत्थ दंसणतियस्स संकमाभावादो । एवं वडिदण द्विदेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतण पढमछावहिं भमिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जिय तस्स दुचरिमसमयहिदो सरिसो। एवमेगेगगोवुच्छ वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव पढमछावहिचरिमसमयसम्मादिहि त्ति । पुणो एतो हेट्ठा परमाणुत्तरकमेण वडाविजमाणे णवरि हदसंकगण स्थिवुक्कर्सकमेण च गददव्वं वड्ढावेदव्यं । एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो जहण्णमामित्तविहाणेणागंतूण पढमछावहिसम्मत्तकालदुचरिमसमयद्विदो सरिसो। एवमोदारेदव्वं जाव आवलियूणपढमछावट्टि त्ति । पुणो तत्थ हविय वड्ढाविजमाणे विज्झादसंकमण गददवं चेव वड्ढावेदव्वं, त्थिवुक्कसंकमेण गदमिच्छत्तगोवुच्छाए अभावादो। एवमोदारेयव्वं जाव उवसमसम्मादिद्विचरिमसमओ ति । तत्थ दृविय पुणो वि एगसमयविज्झादसंकमगददव्वमेत्तं चेव वड्डावेयव्वं । एवं वड्डिदृण द्विदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवन्जिय तस्स दुचरिमसमयट्ठिदो सरिसो । एवमंत्तोमुहुत्तकालमोदारेदव्वं जाव गुणसंकमचरिमसमओ कहीं पर संयतासंयतकी गुणश्रेणिगोपुच्छा और कहीं पर स्वस्थान सम्यग्दृष्टिकी गोपुच्छा स्तिवुकसक्रमणके द्वारा परप्रकृतिरूपसे संक्रान्त होती है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। अब इससे नीचे उतारने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टिके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुई गोपुच्छा ही बढ़ाना चाहिए, क्योंकि वहां पर दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका संक्रमण नहीं होता। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर प्रथम छ यासठ सागर काल तक भ्रमण करके और सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसके द्विचरम समयमें स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार एक एक गोपुच्छको बढ़ाकर प्रथम छयासठ सागरके अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। फिर इससे नीचे उत्तरोत्तर एक एक परमाणु के क्रमसे बढ़ाने पर हतसंक्रमणके द्वारा और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर प्रथम छयासठ सागरसम्बन्धी सम्यक्त्वकालके द्विचरम समयमें स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार एक आवलि कम प्रथम छयासठ सागर काल तक उतारना चाहिये । फिर वहां ठहराकर बढ़ाने पर विध्यातसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य ही बढ़ाना चाहिये, क्योंकि वहां पर स्तिवुक संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुए मिथ्यात्वके गोपुच्छाका अभाव है। इस प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक उतरना चाहिये । अब वहां ठहराकर फिर भी एक समयमें विध्यातसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य मात्र बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर उसके द्विचरम समयमें स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार गुणसंक्रमका अन्तिम समय प्राप्त होने तक अन्तर्मुहूर्त काल तक उतारना चाहिये । फिर वहां पर ठहराकर बढ़ाने पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org