Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 210
________________ १९९ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ६ १८८. संपहि दुचरिमखंडयचरिमफालिप्पहुडि हेट्ठा ओदारिजमाणे फालिदव्वं ण वड्ढावेदव्वं, दुचरिमादिसव्वहिदिखंडयफालीणं परसरूवेण गमणाभावादो । तेण चरिमखंडयस्सुवरि वड्दाविजमाणे दुचरिमखंडयचरिमसमयम्मि गुणसंकमण गददव्व' तत्थ त्थिवुक्कसंकमेण गदगुणसेढिगोवच्छदव्वं च वड्ढाव दव्वं । एदेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण वेछावट्ठीओ भमिय चरिमद्विदिखंडएण सह दुचरिमखंडयचरिमफालिं धरिय हिदो सरिसो । एवं गुणसंकमभागहारेण गददव्वं त्थिवुकसंकमेण गदगुणसे ढिगोवुच्छ' च वडाविय ओदारेदव्वं जाव आवलियअणियट्टि त्ति । संपहि एत्तो प्पहुडि हेहा गुणसंकमेण गददव्वं त्थिउक्कसंकमण गदअपुत्रगुणसेढिगोवुच्छ च वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव आवलियअपुव्वकरणे त्ति । एत्तो प्पहुडि हेढा ओदारिजमाणे गुणसंकमेण गददव्वं संजमगुणसेढिगोवुच्छदव्य च' वड्डाविय ओदारेदव्य जाव चरिमसमयअधापमत्तकरणे त्ति । एत्तो हेहा ओदारिजमाणे गुणसंकमण गददव्यं णत्थि त्ति विज्झादसंकमण गददव्वं त्थिव कगोवच्छदव्यं च वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव विदियछावहिपढमसमयादो हेहा सम्मामिच्छादिहिचरिमसमओ त्ति । णवरि कत्थ मिथ्यात्वकी त्रिचरम फालिको धारण करके स्थित है। इस प्रकार मिथ्यात्वके अन्तिम काण्डककी प्रथम फालिके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिए, क्योंकि इससे उस कथनमें कोई विशेषता नहीं है। १८८. अब द्विचरमकाण्डककी अन्तिम फालिसे लेकर नीचे उतारने पर फालिके द्रव्यको नहीं बढ़ाना चाहिये, क्योंकि द्विचरमसे लेकर सब स्थितिकाण्डकोंकी फालियोंका पररूपसे गमन नहीं पाया जाता है, इसलिये अन्तिम काण्डकके ऊपर बढ़ाने पर विचरमकाण्डकके अन्तिम समयमें गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य तथा वहीं पर स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ गुणणि और गोपुच्छाका द्रव्य बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर, दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके अन्तिम स्थितिकाण्डकके साथ द्विचरम स्थितिकाण्डककी चरम फालिको धारण करके स्थित है। इस प्रकार गुणसंक्रमणभागहारके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ गुणश्रीणि और गोपुच्छाका द्रव्य बढ़ाकर अनिवृत्तिकरणको एक आवलि प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। अब यहाँसे लेकर नीचे गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य तथा स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ अपूर्वकरणकी गुणश्र णि और गोपुच्छाका द्रव्य बढ़ा कर अपूवंकरणकी एक आवाल प्राप्त होने तक उतारना चाहिये । अब यहाँसे लेकर नीचे उतारने पर गुणसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य तथा संयमकी गुणश्रेणि गोपुच्छके द्रव्यको बढ़ाकर अधःप्रवृत्तकरणका अन्तिम समय प्राप्त होने तक उतारना चाहिये। इससे नीचे उतारने पर गुणसंक्रमसे परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य नहीं है इसलिये विध्यातसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य और स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ गोपुच्छाका द्रव्य बढ़ाकर दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयसे नीचे सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कहीं पर संयतकी गुणश्रेणि गोपुच्छा, . .. १. ता०प्रतौ -संकमेणागदगुणसेढ़िगोवुच्छं' इति पाठः । २. ता०प्रतौ -गोवुच्छंच' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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