Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ दव्यमेदेण' सरिसमूणहियं पि अत्थि । तत्थ सरिसं घेत्तूण परमाणुत्तरकमेण दोहि वड्डीहि वड्डावेदव्वं जाव मिच्छत्तमुक्कस्सदव्वं पत्तं ति । एवं कदे आवलियमेत्तफद्दयाणि अस्सिदूण मिच्छत्तस्स विदियपयारेण हाणपरूवणा कदा होदि ।
१८७. संपहि खविदकम्मंसियस्स संतकम्ममस्सिदण हाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–समयूणावलियमेत्तफहएमु समयूणावलियमेत्ताणि चेव सांतरट्ठाणाणि उप्पजंति, तत्थ ख विदकम्मसियसंतं पडि णिरंतरठाणुप्पत्तीएर अभावादो। संपहि खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय वेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तचरिमफालिं धरिय हिदखवगो परमाणुत्तरकमेण दोहि वड्डीहि वड्ढावेदव्यो जाव दुचरिमसमय म्मि परसरूवण गददुचरिमफालिदव्वं पुणो थिउक्कस्संतरेण संकमेण सम्मत्तसरू वेण गदगुणसेढिगोवुच्छदव्वं च वड्डिदं ति । पुणो एदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण वेछावहीओ भमिय मिच्छत्तदुचरिमफालिं धरिय हिदो सरिसो। संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तरकमेण वड्डाव दव्यो जाव तिचरिमसमयम्मि गदतिचरिमफालिदव्य तत्थेव त्थिवुक्कसंकमेण गदगुणसेढिगोवुच्छदव्वं च वड्डिदं ति । एवं वड्डिदण द्विदेण जहण्णसामित्तविहाणणागंतूण वेछावहीओ भमिय मिच्छत्ततिचरिमफालिं धरिय हिदो सरिसो । एवमोदारेदव्वं जाव चरिमखंडयपढमफालि त्ति, विसेसाभावादो। द्रव्यके समान भी होता है, न्यून भी होता है और अधिक भी होता है। उसमेंसे समान द्रव्यको ग्रहण कर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक दो वृद्धियोंके द्वारा उसकी वृद्धि करनी चाहिये । ऐसा करने पर एक आवलिप्रमाण स्पधेकोंका आश्रय लेकर मिथ्यात्वके स्थानोंकी प्ररूपणा दूसरे प्रकारसे की गई है।
६९८७. अब क्षपितकाशके सत्कर्मका आश्रय लेकर स्थानोंका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके एक समय कम आवलिप्रमाण ही सान्तर स्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उनमें क्षपितकर्माशके सत्त्वकी अपेक्षा निरन्तर स्थानोंकी उत्पत्ति नहीं होती। अब एक ऐसा क्षपक जीव लो जो क्षपितकर्माशकी विधिसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त करके, दो छ्यासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है। फिर इसके दो वृद्धियोंके द्वारा उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे द्रव्यको तब तक बढ़ाओ जब तक इसके द्वि चरम समयमें प्राप्त हुआ द्विचरिम फालिका द्रव्य तथा स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ गुणश्रेणि और गोपुच्छाका द्रव्य वृद्धि को प्राप्त हो जाय । फिर इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी द्विचरम फालिको धारण करके स्थित है। अब इस जीवको लेकर उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे तब तक बढ़ाओ जब तक इसके द्विचरम समयमें प्राप्त हुआ त्रिचरम फालिका द्रव्य तथा वहीं पर स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ गुणश्रोणि और गोपुच्छाका द्रव्य वृद्धिको प्राप्त हो जाय । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर, दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके
१. आ०प्रतौ 'दब्वमेत्तेण' इति पाठः । २. आ०प्रतौ 'णिरंतरं ठाणुप्पत्तीए' इति पाठः ।
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