Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अस्सिदूण पुध पुध कालपरिहाणीए द्वाणपरूवणा कायव्वा जाव समयूणावलियमेत्तफद्दयाणि सगसगुक्कस्सत्तं पत्ताणि त्ति ।
१८५. तत्थ सयपच्छिमफद्दयस्स ओयारणकमो वुच्चदे । तं जहा—गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खविय समयूणावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ धरिय द्विदेण अण्णेगो समयूणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसेहि एगसमयमोकड्डण-पयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वेण य ऊणमुक्कस्सं समयूणावलियमत्तगोवुच्छाणं करिय आगंतूण समयूणवेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं खविय समऊणावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ धरेदूण हिदो सरिसो । संपहि इमघेत्तूण परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्व जावप्पणो ऊणीकदं वड्विदं ति । एवं णाणाजीवे अस्सिदूण संधीओ जाणिय ओदारेदव्यं जाव अंतोमुहुत्तूणवेछावहिमोदिण्णो त्ति ।
१८६. पुणो एदेण णेरइएसु मिच्छत्तदव्यमुक्कस्सं करिय आगंतूण तिरिक्खेसुववन्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तं गमिय मणुस्सेसुववजिय जोणिणिक्कमणजम्मणेण अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्साणमुवरि मिच्छत्तं खविय समयूणावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ धरेदण द्विदेण मिच्छत्तमुक्कस्सं करिय वेछावट्ठीओ भमिय दंसणमोहक्खवणमाढविय
कालको हानि द्वारा एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके अपने अपने उत्कृष्टपनेको प्राप्त होने तक स्थानोंका कथन करना चाहिये ।
६१८५ अब सबसे अन्तिम स्पर्धकके उतारनेका क्रम कहते हैं जो इस प्रकार हैएक जीव ऐसा है जो गुणितकाशकी विधिसे आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षय करके एक समय कम आवलिप्रमाण गुणश्रेणि गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। तथा एक अन्य जीव ऐसा है जो एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाविशेषोंसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे न्यून एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको उत्कृष्ट करके आया है और एक समय कम दो छयासठ सागर तक परिभ्रमण करके तथा मिथ्यात्वका क्षय करके एक समय कम आवलिप्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। इस प्रकार स्थित हुआ यह जीव पिछले जीवके समान है। अब इसे लेकर एक एक परमाणुके उत्तरोत्तर अधिक के क्रमसे अपने कम किये हुए द्रव्यके बढ़ने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार नाना जीवों का आश्रय लेकर और सन्धियोंको जानकर अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सार तक उतारते जाना चाहिये।
६१८६ फिर इस जीवने नारकियोंमें मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट किया और वहांसे आकर तिर्यश्चोंमें उत्पन्न हुआ। और वहाँ अन्तर्मुहूर्त बिताकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ योनिसे बाहर पड़नेरूप जन्मसे लेकर आठ वर्ष और अन्तमुहूर्त होने पर मिथ्यात्वका क्षय करके एक समयकम आवलिप्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाओंको धारण करके स्थित हुआ । इस प्रकार स्थित हुए इस जीवके साथ मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके और दर्शनमोहनीयके क्षयका आरम्भ करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको
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