Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं धरेदूण हिदो सरिसो । एवं समयूणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणपढमलावहि त्ति । एवमोदारिदे एगं फद्दयं होदि, अंतराभावादो।
. १८३. संपहि विदियफद्दए ओदारिजमाणे पुव्वं व ओदारेदव्वं । णवरि दोगोबुच्छविसेसेहि एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वेण य णेरइयचरिमसमए पयददोगोवुच्छाओ ऊणाओ करिय समयूणवेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं खविय तदो गोवुच्छाओ तिसमयकालहि दियाओ धरेदण द्विदो सरिसो । पुणो एदं दव्वं परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वं जावप्पणो ऊणीकददव्वं वड्डिदं ति । एदेण अण्णेगो दोगोवुच्छविसेसेहि एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वेण य पयददोगोवुच्छाणमणमुक्कस्सं करिय दुसमयणवेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं खविय तद्दोगोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ घरदूण द्विदो सरिसो। एवं संधीओ जाणिय ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणवेछावडीओ ओदिण्णाओ ति । एवमोदारिदे विदियं फद्दयं होदि; अंतराभावादो।'
$ १८४. संपहि तदियफद्दए ओदारिजमाणे पुव्वं व ओदारेदव्यं । णवरि तीहि गोवुच्छविसेसेहि एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिन्जमाणदव्वेण य ऊणमुक्कस्सं तिहं पयदगोवुच्छाणं कादूणोदारेदव्वं । एवं समयूणावलियमेत्तफद्दयाणि धारण करके स्थित होता है तब वह पूर्वोक्त जीवके समान होता है। इस प्रकार एक समय कम आदिके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त कम पहले छयासठ सागर काल तक उतारते जाना चाहिये। इस प्रकार उतारने पर एक स्पर्धक होता है, क्योंकि बीच में अन्तर नहीं पाया जाता ।
६१८३. अब दूसरे स्पर्धकके उतारने पर पहलेके समान उतारना चाहिये । इतनी विशेषता है कि नारकीके अन्तिम समयमें प्रकृतिगोपुच्छाओंको दो गोपुच्छविशेषोंसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृतिरूपसे संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम करे। तथा एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षय करे । ऐसा करते हुए तीन समय कालको स्थितिवाले मिथ्यात्वके दो निषेकोंको धारण करके स्थित हुआ जीव समान है । फिर इस द्रव्यको एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे अपने कम किये गये द्रव्यके बढ़ने तक बढ़ाता जाय । अब एक अन्य जीव लो जो दो गोपुच्छविशेषोंसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे न्यून प्रकृत दो गोपच्छाओंको उत्कृष्ट करके दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षय करके तीन समय कालकी स्थितिवाले मिथ्यात्वके दो गोपच्छाओंको धारण करके स्थित है । वह पहले बढ़ाकर स्थित हुये जीवके समान है। इस प्रकार सन्धियोंको जानकर अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर काल उतरने तक उतारते जाना चाहिये । इस प्रकार उतारने पर दूसरा स्पर्धक होता है, क्योंकि बीचमें अन्तरका अभाव है।
६१८४ अब तीसरे स्पर्धकके उतारने पर पहलेके समान उतारते जाना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन गोपुच्छविशेषोंसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे न्यून तीन प्रकृति गोपुच्छाओंको उत्कृष्ट करके उतारना चाहिये। इस प्रकार एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंका आश्रय लेकर अलग अलग
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