Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ __ १९६. पुणो वि तदसंखेजगुणत्तस्स किं चि कारणं वुचदे । तं जहाएगमेइंदियसमयपबद्ध दिवड्डगुणहाणिगुणिदं द्वविय पुणो अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकड्डुक्कड्डणभागहारो किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारो अण्णेगो ओकड्डक्कड्डणभागहारो वेछावट्टिअब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासी उव्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी च भागहारो हेट्ठा ठवेदव्यो । एवं ठविय पुणो दिवडभागहारे ठविदे तदित्थलाभो होदि । संपहि पयडिगोवुच्छ ठविय ओकडकड्डणभागहारेणोवट्टिदे पयडिगोवुच्छावओ होदि । एदे आय-व्वया व वि सरिसा, उभयत्थ भागहार-गुणगाराणं सरिसत्तुवलंभादो । संपहि विज्झादसंकममस्सिदूणायपरूवणं कस्सामो । तं जहा–एगमेइंदियसमयपबद्धं दिवड्डगुणहाणिगुणिदं ठविय पुणो अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकडकडणभागहारो विज्झादभागहारो वेछावहि-उव्वेलणणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी च भागहारो ठवेदव्यो । पुणो पच्छा दिवड्वगुणहाणिणा खंडिदे तत्थ एगखंडं विज्झादमस्सिदण आओ होदि । विज्झादेण वओ वि अत्थि सो अप्पहाणो, आयादो तस्स असंखेजगुणहीणत्तादो । तदसंखेजगुणहीणतं कुदो
करना चाहिये।
६१६६. अब फिरसे प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी क्यों है इसका कुछ अन्य कारण कहते हैं। वह इसप्रकार है-एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणित करके स्थापित करो। फिर इसके नीचे अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रम भागहार, अन्य एक अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, दो छयासठ सागर के भीतर नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि और उद्वलन कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन सब राशियोंको भागहाररूपसे स्थापित करो । इस प्रकार स्थापित करके पुनः डेढ़ गुणहानिको भागहाररूपसे स्थापित करने पर वहांका लाभ प्राप्त होता है । अब प्रकृतिगोपुच्छाको स्थापित करके अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर प्रकृतिगोपुच्छाओंमेंसे जितनेका व्यय होता है वह राशि आती है। ये दोनों ही आय और व्यय समान हैं, क्योंकि दोनों ही जगह भागहार और गुणकार समान पाये जाते हैं। अब विध्यातसंक्रमणका आश्रय लेकर आयका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है-एकेन्द्रि यके एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करके स्थापित करो। फिर इसके नीचे अन्त महूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, विध्यातसंक्रमण भागहार, दो छथ सठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन सब राशियोंको भागहाररूपसे स्थापित करो। फिर नीचेसे डेढ़ गुणहानिका भाग देने पर जो एक भाग द्रव्य प्राप्त हो वह विध्यातकी अपेक्षा आयका प्रमाण होता है। विध्यातसंक्रमणके द्वारा व्यय भी होता है पर उसकी यहां प्रधानता नहीं है, क्योंकि आयसे वह असंख्यातगुणा हीन है।
शंका-वह आयसे असंख्यातगुणा हीन है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
१. ता०आ०प्रत्योः 'आदी होदि' इति पाठः।
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