Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२०९ णव्वदे? अणंतरपरूविदअंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकड्डुक्कड्डणभागहार-गुणसंकमभागहार-वेछावडिउव्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागण्णोण्णब्भत्थरासि-दिवड्डगुणहाणि-विज्झादभागहारेहि खंडिद एगखंडपमाणस्स तस्सुवलंभादो। एदेण कमेण वेछावहिं गमिय मिच्छत्ते पडिवण्णे सम्मामिच्छत्तस्स वओ चेव, अधापमत्तसंकमभागहारेण सम्मामिच्छत्तदव्वे खंडिदे तस्स एयखंडस्स मिच्छत्तसरूवेण अंतोमुहुत्तकालं णिरंतरं गमणुवलंभादो। पुणो उव्वेल्लणपारंभे कदे पयडिगोवुच्छाए उव्वल्लणभागहारेण खंडिदाए तत्थ एयखंड मिच्छत्तसरूवेण गच्छदि । एवमुव्वेल्लणभागहारेण पयदगोवुच्छाए खंडिदाए तत्थ एगेगखंडं समयं पडि झीयमाणं गच्छदि जाव उव्वेल्लणकालचरिमसमओ त्ति । एवमेसा पयडिगोवुच्छाए आय-व्वयपरू वणा कदा ।
६ १९७. संपहि विगिदिगोवुच्छाए माहप्पपरूवणा कीरदे । तं जहावेछावहिकालब्भंतरे णस्थि विगिदिगोवुच्छा, तत्थ ट्ठिदिखंडयघादाभावादो। संते वि तग्धादे तत्तो जादसंचयस्स पयडिगोवुच्छाए अंतब्भावादो। संपहि पढमुव्वेल्लणखंडयचरिमफालीए णिवदमाणाए विगिदिगोवुच्छा सव्वजहणिया उप्पजदि । सा च दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्ध अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकडकड्डणभागहारेण किंचूण
समाधान-अभी पहले जो यह कहा है कि अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, गुणसंक्रम भागहार, दो छयासठ सागरके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि, उद्वेलना कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि, डेढ़ गुणहानि और विध्यातसंक्रमण भागहार इन सबका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उतना व्यय पाया जाता है, इससे ज्ञात होता है कि आयसे व्यय असंख्यातगुणा हीन है।
इस क्रमसे दो छयासठ सागर काल बिताकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यका व्यय ही होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यमें अधःप्रवृत्तसंक्रम भागहारका भाग देने पर जो एक खण्ड द्रव्य प्राप्त होता है उतनेका अन्तर्मुहूर्त काल तक निरन्तर मिथ्यात्वरूपसे संक्रमण पाया जाता है । फिर उद्वेलनाका प्रारम्भ करनेपर प्रकृतिगोपुच्छामें उद्वलना भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है उतना मिथ्यात्वरूपसे प्राप्त होता है। इस प्रकार उद्वलना भागहारका प्रकृतिगोपुच्छामें भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है वह प्रत्येक समयमें उद्वेलना कालके अन्तिम समय तक झरकर मिथ्य जाता है अर्थात् मिथ्यात्वरूप होता जाता है। इस प्रकार यह प्रकृतिगोपुच्छाके आय और व्ययका कथन किया।
१९७. अब विकृतिगोपुच्छाके माहात्म्यका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-दो छथासठ सागर कालके भीतर विकृतिगोपुच्छा नहीं है, क्योंकि उस कालमें स्थितिकाण्डकघात नहीं होता। उस कालके भीतर यदा कदाचित् स्थितिकाण्डकघात होता भी है तो उससे हुए संचयका प्रकृतिगोपुच्छामें ही अन्तर्भाव हो जाता है । अब प्रथम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिका पतन होनेपर सबसे जघन्य विकृतिगोपुच्छा उत्पन्न होती है । डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयप्रबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, कुछ कम
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