Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वडिदेण अवरेगो खविदकम्मंसिओ पढमछाव दि भमिय मिच्छत्तं खविय तिण्णि णिसेगे चदुसमयकालहिदिगे धरेदण हिदजीवो सरिसो। एवं समयणादिकमेणोदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणपढमछाव ही ओदिण्णा ।त्त । पुणो तत्थ ठविय चत्तारि परिसे अस्सिदृण वड्ढावेदव्वं जाव एवं फद्दयमुक्कस्सत्तं' पत्तं ति । एदेण कमेण समयूणावलियमंत्तफद्दयाणि अस्सिदृण हाणपरूवणा जाणिदूण कायव्वा । णव रि पुव्वुत्तसंधिम्मि पढमवारं वड्डाविय गोवुच्छविसेसाणं चत्तारि-पंचआदिगुणगारे पवेसिय वड्डावर्ण कायव्वं जाव तेसिं समयूणावलियमेत्तगुणगारो पवट्ठो त्ति ।
१७६. संपहि समयणावलियमेत्तगोवुच्छाणं कालपरिहाणिं काऊण चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण तासु वड्डाविजमाणियासु अणियदिगुणसे ढिगोवुच्छाओ ण वड्ढावेदव्याओ; तत्थ परिणामभेदाभावेण खविद-गुणिदकम्मंसियाणमणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाणं तिसु वि कालेसु सरिसत्तवलंभादो । अपुव्वगुणसेढी वड्ढदि, तत्थ असंखेजलोगमेत्तपरिणामाणमुवलंभादो। णवरि पदेसुत्तरादिकमेण पत्थि वड्डी, असंखेजलोगेहि जहण्णदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तदव्वस्स एगवारेण वड्डिदंसणादो। तं जहाअपुव्वकरणपढमसमयम्मि असंखेजलोगमेत्तपरिणामहाणाणि होति । तत्थ जहण्णपरिणामट्ठाणप्पहुडि असंखे०लोगमेत्तविसोहिट्ठाणाणि जहण्णगुणसेढिपदेसविण्णासस्सेव स्थितिवाले तीन निषेकोंको धारण करके स्थित हुआ अन्य एक क्षपितकर्मा'शवाला जीव समान है। इस प्रकार एक सययहीन आदिके क्रमसे अन्तमुहत कम छयासठ सागर काल तक उतारते जाना चाहिये। फिर वहाँ ठहराकर चार पुरुषोंकी अपेक्षा तब तक बढ़ाते जाना चाहिये जब तक यह स्पर्धक उत्कृष्टपनेको प्राप्त होवे । इस क्रमसे एक समयकम आवली प्रमाण स्पर्धकोंको लेकर स्थानोंका कथन जानकर कहना चाहिये । किन्तु इतना विशेष है कि पूर्वोक्त सन्धिमें प्रथमबार बढ़ा करके गोपुच्छविशेषांके चार, पाँच आदि गुणकारोंका प्रवेश कराकर तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक उन गोपुच्छोंके एक समयकम आवलीप्रमाण गुणकार प्रविष्ट हों । अर्थात् चौगुने पँचगुने आदिके क्रमसे एक समय कम आवलीप्रमाण गुणित गोपुच्छोंकी वृद्धि करनी चाहिये।
६ १७६. अब एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंकी कालकी हानिको करके चार पुरुषोंकी अपेक्षा उन गोपुच्छाओंमें वृद्धि करने पर अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणणिकी गोपुच्छाएँ नहीं बढ़ानी चाहिये, क्योंकि वहाँ परिणाम भेद न होनेसे क्षपितकर्मा श और गुणितकर्मा शवाले जीवोंकी अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छओंमें तीनों ही कालोंमें समानता पाई जाती है । केवल अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिमें ही वृद्धि होती है, क्योंकि अपूर्वकरणमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम पाये जाते हैं। किन्तु अपूर्वकरणमें एक प्रदेश अधिक आदिके क्रमसे वृद्धि नहीं होती, क्योंकि असंख्यात लोकके द्वारा जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर जो आवे उसके लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यकी वहाँ एक बारमें वृद्धि देखी जाती है। खुलासा इस प्रकार है-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं। उनमेंसे जघन्य परिणामस्थानसे लेकर असंख्यात लोकप्रमाण विशुद्धिस्थान तो
१. श्रा.प्रतौ 'फद्दयमुक्कस्संतरं पत्तं' इति पाठः ।
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