Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त
१८३ विणासिददव्यं परपयडिसंकमण गददव्यमेत्तं च एत्थ वड्डावेदव्वं । एवं वड्डिदेण समयूणपढमछावठिं भमिय मिच्छत्तं खविय वेणिसेगे तिसमयकालहिदिगे धरेदूण द्विदजीवो सरिसो। एवं जाणिदण ओदारेदव्वं जाव पढमछावही हाइ दूण अंतोमुहुत्तमत्ता चेद्विदा त्ति । तत्थ दृविय चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण वड्ढावेदव्वं जाव तदित्थओघुक्कस्सदव्वं पत्तं ति । एवं विदियफद्दयमस्सिदूण द्वाणपरूवणा कदा ।
$ १७५. संपहि खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावहीओ भमिय मिच्छत्तं खविय तिण्णि णिसेगे चदुसमयकालहिदिगे धरेदूण हिदम्मि तदियफद्दयस्स आदी होदि । एत्थ फद्दयंतरपमाणं जाणिदूण वत्तव्वं । संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण दोहि वड्डीहि तिण्णिगोवुच्छविसेसमेत्तमेगवारमोकड्डिदूण विणासिददव्वमेत्तं परपयडिसंकमेण गददव्वमत्तं च वढाविय समयूण-दुसमयूणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तणवि दियछावट्ठी ओदिण्णा ति । पुणो तत्थ दृविय परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वं जाव पढमवारं वड्डिदअंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसेहितो तिगुणगोवुच्छविसेसा अंतोमुहुत्तमोकड्डिदूण परपयडिसंकमण विणासिददव्वमेत्तं वड्डिदं ति । एवं दो वृद्धियोंके द्वारा दो गोपुच्छविशेष, एक बार अपकर्षणके द्वारा घिनष्ट हुआ द्रव्य और परप्रकृतिरूपसे संकान्त हुए द्रव्यके बराबर द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार वृद्धि करनेवाले जीवके साथ एक समय कम प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षपण करके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंको धारण करके स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार जानकर तब तक उतारना चाहिये जब तक प्रथम छयासठ सागर घट करके अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाये । वहाँ ठहरकर चार पुरुषोंकी अपेक्षासे तब तक बढ़ाते जाना चाहिये जब तक वहाँका ओघरूपसे उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त हो । इस प्रकार दूसरे स्पर्धकको लेकर स्थानोंका कथन किया।
विशेषार्थ-प्रथम स्पर्धकके जघन्य सत्कर्म स्थानसे लेकर उसीके उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानको प्राप्त करनेके लिये जिस प्रक्रियाका निर्देश किया है वही प्रक्रिया यहाँ भी समझ लेनी चाहिए।
६ १७५. अब क्षपितकर्मा शके लक्षणके साथ आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके चार समयकी स्थितिवाले तीन निषेकोंको धारण करनेवाले जीवके तीसरे स्पर्धकका आरम्भ होता है । यहाँ पर स्पर्धकके अन्तरका प्रमाण जानकर कहना चाहिये। अब इसे लेकर एक परमाणु आदिके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा तीन गोपुच्छविशेष प्रमाण, और एकबार अपकर्षण करके विनष्ट हुए द्रव्यप्रमाण और अन्य प्रकृति रूपसे संक्रान्त हुए द्रव्यप्रमाण द्रव्यको बढ़ाकर एक समय कम, दो समय कम आदिके क्रमसे अन्तर्मुहूर्तकम दूसरे छयासठ सागर काल पर्यन्त उतारते जाना चाहिए। फिर वहाँ ठहराकर एक एक परमाणुके अधिकके क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक प्रथमबार बढ़े हुए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गोपुच्छविशेषोंसे तिगुने गोपुच्छविशेष और अन्तर्मुहूर्तमें अपकर्षण करके अन्य प्रकृतिरूपसे विनष्ट हुए द्रव्यप्रमाण द्रव्यकी वृद्धि हो। इस प्रकार वृद्धि करनेवाले जीव के साथ प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षपण करके चार समयकी
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