Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं * जो पुण तम्मि एक्कम्मि द्विदिविसेसे उकस्सगस्स विसेसो असंखेजा समयपषद्धा।
. १५६. पुव्वं तिस्से एक्किस्से हिदीए खविदकम्मंसियलक्खणेण आगदस्स एगसमयपबद्धमत्ता परमाणू अहिया होति त्ति परूविदं । एदेण' पुण सुत्तेण गुणिदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण वेछावडीओभमिय मिच्छत्तंखविय एकिस्से हिदीए मिच्छत्तपदेसं काऊण डिदस्स उक्कस्सदव्वादो जहण्णदव्वे सोहिदे जं सेसंतमुक्कस्सगस्स विसेसोणाम । तम्मि विसेसे असंखेजा समयपबद्धा होति । कुदो ? खविदकम्मंसियपगदि-विगिदिगोवुच्छाहिंतो गुणिदकम्मंसियस्स पगदि-विगिदिगोवुच्छाओ असंखेजगुणाओ, उक्कस्सजोगेण बढ़ाने तक ही चालू रहता है आगे नहीं, क्योंकि क्षपितकर्मा शके इससे और अधिक प्रदेशोंकी वृद्धि नहीं होती। इस प्रकार क्षपितकाशके दो समय कालवाली एक स्थितिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म स्थानसे लेकर उत्तरोत्तर एक एक प्रदेशकी वृद्धि होते हुए एक समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशोंकी वृद्धि होती है । अब प्रश्न यह है कि सबके क्षपितकाशकी विधि के समान रहते हुए किसीके जघन्य सत्कर्मस्थान, किसीके एक प्रदेश अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान, किसीके दो प्रदेश अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान और अन्तमें जाकर किसीके एकसमयप्रबद्ध अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान क्यों पाया जाता है ? वीरसेन स्वामी ने इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यद्यपि क्षपिकाशकी विधि सबके
। भले ही पाई जाती है तब भी उपशामनाकरण, निधत्तिकरण और निकाचनाकरणके कारण अपकर्षण और उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले परमाणुओंमें समानता नहीं रहती, इसलिये किसीके जघन्य सत्कर्मस्थान, किसी के एक परमाणु अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान, किसीके दो परमाणु अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान और अन्तमें जाकर किसीके एक समयप्रबद्ध अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान बन जाता है। यदि कहा जाय कि इससे क्षपितकाशकी विधिमें अन्तर पड़ जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि क्षपितकाशकी विधिके लिये जो छह आवश्यक बतलाये हैं वे सबके एक समान पाये जाते हैं, अतएव क्षपितकाशकी विधिमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस प्रकार क्षपितकर्माशके दो समयवाली एक स्थितिमें जघन्य सत्कर्मस्थानसे लेकर निरन्तर क्रमसे एक एक परमाणुकी वृद्धि होते हुए अधिक से अधिक एक समयप्रबद्धको वृद्धि होती है यह इस प्रकरण का तात्पर्य है।
8 किन्तु उस एक स्थितिविकल्पमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको प्राप्त हुए द्रव्यका जो विशेष प्राप्त होता है वह असंख्यात समयप्रवद्धरूप है।
$ १५६. पूर्वसूत्र में उस एक स्थितिमें क्षपितकर्मा शके लक्षणके साथ आये हुए जीवके एक समयप्रबद्धप्रमाण परमाणु अधिक होते हैं ऐसा कथन किया है । परन्तु इस सूत्रके अनुसार
गतकर्मा शके लक्षणके साथ आकर एक सौ बत्तीस सागर तक भ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षपण करके मिथ्यात्वके परमाणुओंको एक स्थितिमें करके जो स्थित है उसके उत्कृष्ट द्रव्यमें से जघन्य द्रव्यको घटाने पर जो शेष रहता है उस उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको प्राप्त हुए द्रव्यका विशेष कहते हैं। उस विशेषमें असंख्यात समयप्रबद्ध होते हैं। क्योंकि क्षपितकाशकी प्रकृति और विकृतिगोपुच्छाओंसे गुणितकाशकी प्रकृति और विकृतिगोपुच्छाएँ असंख्यातगुणी होती हैं, क्योंकि उनका
१. श्रा०प्रतौ 'परूवदब्बं । एदेण' इति पाठः ।
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