Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पदेस विहत्ती ५
अणियट्टिगुणसेडिगोच्छादो संखे० गुणो असंखेज गुणो वा होज तो निरंतरबड्डीए अभावादो एग फद्दयं पि ण होज, पगदि - विगिदि - अपुव्वगुणसे डिगोवुच्छासु उकस्सेण वडिददव्वे अणियट्टि गुणसेढीए असंखे० भागमेत्तपरमाणुत्तरकमेण वड्ढिदे पुणो सेसपदेसाणं णिरंतरकमेण वड्डावणोवायाभावादो । तम्हा एदिस्से हिदीए पदेसग्गस्स एगं चेत्र फइयं त्ति दट्ठव्वं ।
* दोसु द्विदिविसेसेसु विदियं फय ।
$ १६०. गुणिदकम्मं सियलक्खलेणागदएग हि दिदुसमयकालउक्कस्सदव्वे खविदकम्मंसियलक्खणेणागदस्स दोडिदितिसमयका लजहण्णदव्वमि सोहिदे सुद्ध से सम्मि एगपरमाणुस अणुवलंभादो । ण च एगं मोत्तूण बहुसु परमाणुसु अकमेण वड्ढिदेसु एगं फद्दयं होदि, कमवड्डि-हाणीणं फद्दयववएसादो । सुद्ध सेसम्म एगपरमाणु' मोत्तूण बहुआ' परमाणू थक्क तित्ति कुदो णव्वदे ? जुत्तीदो । तं जहा — खविदकम्मं सियचरिमगुणश्र ेणिक्की गोपुच्छासे संख्यातगुणा अथवा भसंख्यातगुणा होता तो निरन्तर वृद्धिका अभाव होनेसे एक स्पर्धक भी नहीं होता; क्योंकि प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणकी गुणश्र ेणिगोपुच्छा इनमें उत्कृष्ट रूपसे वृद्धिको प्राप्त हुआ द्रव्य अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है जो प्रदेशोत्तरक्रमसे बढ़ा है किन्तु इसके अतिरिक्त शेष प्रदेशोंका निरन्तरक्रमसे बढ़ानेका कोई उपाय नहीं पाया जाता, इसलिये इस स्थिति के प्रदेशोंका एक ही स्पर्धक होता है ऐसा जानना चाहिये ।
विशेषार्थ — पहले उत्कृष्ट विशेषको जघन्य प्रदेशसत्कर्मके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं और वहां इस कथनकी सार्थकताको बतलाते हुए कहा है कि यह प्ररूपणा जघन्य प्रदेश सत्कर्मस्थानके असंख्यातवें भागप्रमाण कुल स्थान पाये जाते हैं इस बातके बतलाने के लिये की गई है । किन्तु ये स्थान निरन्तर वृद्धिको लिए हुए हैं या सान्तर वृद्धिरूप हैं इस बातका ज्ञान उक्त प्ररूपणासे नहीं होता है, अतः यहाँ इसी बातका ज्ञान कराया गया है । जघन्य सत्कर्मस्थान से लेकर उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान तक यहाँ जितने भी स्थान सम्भव हैं वे निरन्तर क्रमसे वृद्धिको लिए हुए हैं, इसलिए इन सबका मिलाकर एक स्पर्धक होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि स्पर्धकका लक्षण है कि जहाँ निरन्तररूपसे क्रमवृद्धि और हानि पाई जाती है उसे स्पर्धक कहते हैं ।
* दो स्थितिविशेषोंमें दूसरा स्पर्धक होता है ।
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$ १६० गुणितकर्मा शके लक्षण के साथ आये हुये दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकके उत्कृष्ट द्रव्यको क्षपितकर्मा शके लक्षण के साथ आये हुये तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकसम्बन्धी जघन्य द्रव्यमें से घटानेपर जो शेष रहे उसमें एक परमाणु नहीं पाया जाता । और एकको छोड़कर बहुत परमाणुओंके साथ बढ़ने पर एक स्पर्धक होता नहीं; क्योंकि क्रमसे होनेवाली वृद्धि और हानिको स्पर्धक कहते हैं ।
शंका - घटाने पर शेष में एक परमाणुको छोड़कर बहुत परमाणु रहते हैं यह किस प्रमाणसे जाना ?
१. आ० प्रतौ 'एग परमाणु घेत्तूण बहुना' इति पाठः ।
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