Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ _____ १७३. संपहि विदियफद्दयमस्सिदृण हाणपरूवणं कस्सामो। तं जहाखविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावहिओ भमिय दंसणमोहणीयक्खवणाए अब्भुट्ठिय मिच्छत्तं खविय तत्थ दोणिसेगे तिसमयकालहिदीए धरेदूण द्विदस्स अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं विदियफद्दयं पडि सव्वजहण्णमुप्पजदि । कुदो एदस्स विदिय
विशेषार्थ-मिथ्यात्वकी दो समयवाली एक निषेक स्थितिसे लेकर सातवें नरकमें भवके अन्तिम समयमें होनेवाले उत्कृष्ट प्रदेशसञ्चयके प्राप्त होने तक कुल स्पर्धक एक आवलिप्रमाण होते हैं इस बातका निर्देश पहले कर ही आये हैं । अब यहाँ इन स्पर्धकोंमेंसे किस स्पर्धकमें कितने प्रदेशसत्कर्म स्थान होते हैं यह बतलानेका प्रक्रम किया गया है । जीव दो प्रकारके हैं-एक क्षपितकर्माशिक और दूसरे गुणितकांशिक । एक तो यह कोई नियम नहीं कि सभी क्षपितकांशिक और गुणितकर्माशिक जीवोंके मिथ्यात्वके सभी प्रदेशसत्कर्मस्थान एक समान होते हैं। क्रियाविशेषके कारण उनमें अन्तर होना सम्भव है। दूसरे ये जीव निश्चित समयमें पहुँचकर ही मिथ्यात्वकी क्षपणा करते हैं यह भी कोई नियम नहीं है। इनके सिवा ऐसे भी जीव होते हैं जो न तो क्षपितकर्माशिक ही होते हैं और न गुणितकर्माशिक
ही। इसलिए एक-एक स्पर्धकगत प्रदेशभेदसे अनन्त सत्कर्मस्थान बनते हैं। यहाँ सर्व प्रथम मिथ्यात्वको दो समय कालवाली एक स्थितिके शेष रहने पर जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान तक कुल कितने स्थान उत्पन्न होते हैं यह घटित करके बतलाया गया है। उत्तरोत्तर एक एक प्रदेशकी वृद्धि होकर किस प्रकार स्थान उत्पन्न हुए हैं इसका स्पष्ट निर्देश मलमें किया ही है, इसलिये वहाँ से जान लेना चाहिये । यहाँ पर प्रसङ्गसे मिथ्यात्वके द्रव्यका अपकर्षण होते रहनेसे उसका अभाव क्यों नहीं होने पाता इसका भी खुलासा किया है । क्षपणाके पूर्व मिथ्यात्वके द्रव्यके अभाव न होनेके जो कारण दिये हैं वे ये हैं-१. अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार का भाग देकर मिथ्यात्वके जिन परमाणुओंका अपकर्षण होता है उनका निक्षेप अतिस्थापना. वलिको छोड़कर नीचेके उदयावलि बाह्य सव निषेकोंमें होता है। २. मिथ्यात्वके प्रत्येक निषेकमें न्यूनाधिक ऐसे भी परमाणु होते हैं जिनका उपाशमना, निधत्ति और निकाचनारूपपरिणाम होनेसे न तो संक्रमण ही हो सकता है और न अपकर्षण ही । ३. ऊपर के एक आवलिप्रमाण निषेकोंका अभाव करनेमें पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण काल लगता है, इसलिये दो छयासठ सागरप्रमाण कोलके भीतर ऊपरके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण निषेकोंका ही अभाव हो सकता है तथा ४. सव निषेकोंका अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है ऐसा एकान्त नियम नहीं है किन्तु उपशामना आदिके कारण कहीं भागहारका प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण भी पाया जाता है और भागहारके बड़े होनेसे लब्ध द्रव्य स्वल्प होगा यह स्पष्ट ही है । ये तथा ऐसे ही कुछ अन्य कारण हैं जिनके कारण क्षपणके पूर्व वेदकसम्यक्त्वके उत्कृष्ट कालके भीतर मिथ्यात्वके सब द्रव्यका अभाव नहीं होता । इस प्रकार प्रथम स्पर्धकके भीतर जघन्य सत्कर्मस्थानसे लेकर उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानतक जो अनन्त स्थान होते हैं वे उत्पन्न कर लेने चाहिये।
६१७३. अब दूसरे स्पर्धककी अपेक्षा स्थानोंका कथन करते हैं । वह इस प्रकार हैंक्षपितकाशके लक्षणके साथ आकर दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए तैयार होकर, मिथ्यात्वको क्षपणा करके मिथ्यात्वके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंको धारण करके स्थित हुए जीवके दूसरे स्पर्धकका सबसे जघन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है।
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