Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१७९ सुत्तसमाणाइरियवयणादो। एत्थेव वेदगो णाम अत्थाहियारो उवरि अत्थि । तत्थ उक्कस्सयपदेसउदीरणाए जहण्णमंतरमंतोमुहुत्तमिदि पठिदं । तं जहा—गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छादिहिणा उक्कस्सविसोहिहाणेण पदेसुदीरणाए उकस्साए कदाए आदी जादा । पुणो संजमं घेत्तूणंतरिय अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूण संजमाहिमुहो होदूण मिच्छादिहिचरिमसमए तेणेव उक्स्सविसोहिट्ठाणेण उक्कस्सपदेसुदीरणाए कदाए जहण्णमंतरं ति सुत्ते भणिदं तेण जाणिजदि जधा खविद-गुणिदकम्मंसियाणं समाणपरिणामेसु ओकड्डणा सरिसी चेव होदि त्ति । जदि गुणिदकम्मंसियस्सेव उक्कस्सउदीरगा तो जहण्णअंतरेण वि अणंतेण होदव्वं, एगवारं समाणिदगुणिदकिरियस्स पुणो अणंतेण कालेण विणा गुणिदत्ताणुववत्तीदो। तेण अपुव्बपरिणामेसु विसरिसेसु वि संतेसु गुणसेढिपदेसविण्णासो सरिसो त्ति एदं ण घडदे। एत्थ परिहारो वुच्चदे-परिणामे सरिसे संते ओकड्डिजमाणमुक्कड्डिजमाणं च दव्वं सरिसं चेव त्ति णियमो णत्थि; ख विद-गुणिदकम्मंसिएसु एगसमयपबद्धमत्तपदेसाणं वडि-हाणिदसणादो। तेण समाणपरिणामेहि ओकड्डिजमाणदव्वं सरिसं पि होदि त्ति घेतव्वं । विसरिसपरिणामेहि पुण ओकड्डिजमाणदव्वं विसरिसं चेवे त्ति
शंका-सूत्रके बिना यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान-सूत्रसे अविरुद्ध होनेसे सूत्रके समान आचार्य वचनोंसे ऐसा जाना । इसी कसायपाहुडमें आगे वेदक नामका अधिकार है । वहां उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। खुलासा इस प्रकार है-गणितकाशके लक्षणके साथ आकर संयमके अभिमुख अन्तिसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान वश उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणाके करनेपर उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा प्रारम्भ होती है। फिर संयमको ग्रहण करके और मिथ्यात्वका अन्तर करके अन्तर्महत कालतक ठहरकर तदनन्तर मिथ्यात्वमें जाकर पुनः संयमके : होकर मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें उसी विशुद्धिस्थानके द्वारा पुनः उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणाके करनेपर जघन्य अन्तर होता है ऐसा चूर्णिसूत्रमें कहा है । उससे जाना जाता है कि क्षपितकर्माश और गुणितकाशके समान परिणाम होनेपर समान हो अपकर्षण होता है। __ शंका-यदि गुणितकार्माश जीवके ही उत्कृष्ट उदीरणा होती है तो उत्कृष्ट उदीरणाका जघन्य अन्तर भी अनन्तकाल होना चाहिये; क्योंकि एकबार गुणितसंचयकी क्रियाको समाप्त करके पुनः अनन्त काल बीते बिना गणितकाशपना नहीं बन सकता। अतः अपूर्वकरणके परिणामोंके विसदृश होते हुए भी गुणश्रेणिकी प्रदेशरचना समान होती है यह बात नहीं घटती।
समाधान-इस शंकाका परिहार कहते हैं-परिणामोंके सदृश होनेपर अपकृष्यमाण और उत्कृष्यमाण द्रव्य समान ही होता है ऐसा नियम नहीं है; क्योकि क्षपितकर्माश और गुणितकाश जीवोंमें एकसमयप्रबद्धमात्र प्रदेशोंको वृद्धि और हानि देखी जाती है । अतः समान परिणामके द्वारा अपकृष्यमाण द्रव्य समान भी होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। पर विसघशपरिणामके द्वारा अपकृष्यमाण द्रव्यविसदृश ही होता है ऐसानियम नहीं है, क्योंकि छह वृद्धियोंसे युक्त अपूर्व
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