Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गुणसेढिगोवुच्छाओ चेव हेहा गलिदअसेसदव्वादो असंखेजगुणाओ, असंखे०गुणाए सेढीए' णिसित्तत्तादो । गोवुच्छागारेण द्विदफालिदव्वं पुण चरिमफालीए अंतोडिदगुणसेढिदव्वादो असंखेजगुणं, फालीए आयामस्स गोवुच्छगुणगारं पेक्खिदूण असंखे०गुणत्तादो । तेण समयूणावलियमेत्तफद्दयउक्कस्सदव्वे आवलियफद्दयजहण्णदव्वादो सोहिदे सुद्धसेसं फद्दयंतरं होदि । एदं जहण्णदव्वमादि कादूण पदेसुत्तरकमेण णिरंतरं वड्ढावेदव्वं जाव सत्तमाए पुढवीए चरिमसमयणेरड्यस्स उकस्सदव्वं ति । एवं कदे मिच्छ त्तस्स आवलियमेत्तफद्दएहि अणंताणि ठाणाणि उप्पण्णाणि ।
६ १६३. संपहि आवलियमेत्तफद्दएसु पुव्वं सामण्णेण परूविदपदेसट्ठाणाणं विसेसिदूण परूवणं कस्सामो। एसा परूवणा पढमफद्दयपरूवणाए किण्ण परूविदा ? ण,
हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा पाया जाता है, इससे भी जाना जाता है। दूसरे, अन्तिम फालीमें प्रविष्ट अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गणश्रेणिकी गोपुच्छाएँ ही नीचे विगलित हुए सब द्रव्यसे असंख्यात गुणी हैं, क्योंकि असंख्यात गुणितश्र णीरूपसे उनका निक्षेपण हुआ है। तथा गोपुच्छाके आकार रूपसे स्थित फालीका द्रव्य तो अन्तिम फालीके अभ्यन्तरस्थित गुणश्रेणीके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है; क्योंकि गोपुच्छाके गुणकारको अपेक्षा फालीका आयाम असंख्यातगुणा है। अतः एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्द्धकोंके उत्कृष्ट द्रव्यको आवलीप्रमाण स्पर्द्धकोंके जघन्य द्रव्यमेंसे घटानेपर जो शेष बचता है वह स्पर्द्धकोंका अन्तर होता है । इस जघन्य द्रव्यसे लेकर एक एक प्रदेश करके इसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक सातवें नरकके अन्तिम समयवर्ती नारकीके उत्कृष्ट द्रव्य आवे। ऐसा करने पर मिथ्यात्वके आवलिप्रमाण स्पर्द्धकोंसे अनन्त स्थान उत्पन्न होते हैं।
विशेषार्थ-पहले एक समय कम एक आवलिप्रमाण स्पर्धकोंका कथन कर आये हैं। अब यहाँ पर अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनके अन्तिम समयमें जो जघन्य सत्कर्मस्थान होता है उससे लेकर मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक एक ही स्पर्धक होता है, यह बतलाया गया है। अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनके अन्तिम समयमें जघन्य सत्कर्मस्थान क्षपितकर्मा शिकके होता है और मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय जो गुणितकांशिकविधिसे आकर अन्तमें सातव नरकमें उत्पन्न होता है उस नारकीके भवके अन्तिम समयमें होता है। इस प्रकार यद्यपि इन जघन्य और उत्कृष्ट स्थानों में अधिकरी भेद है फिर भी इस जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक जितने भी स्थान प्राप्त होते हैं उनमें क्रमसे प्रदेशोत्तरवृद्धि सम्भव है, इसलिए इन सबक एक स्पर्धक माना गया है। यहाँ एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंमेंसे अन्तिम स्पर्धकके उत्कृष्ट द्रव्यसे इस स्पर्धकका जघन्य द्रव्य असंख्यातगुणा है। इसके स्वतंत्र स्पर्धक माननेका यही कारण है। एक समयकम स्पर्धकोंमेंसे अन्तिम स्पर्धकके उत्कृष्ट द्रव्यसे इस स्पर्धकका जघन्य दव्य असंख्यातगणा क्यों है इस प्रश्नका उत्तर वीरसेन स्वामीने मूलमें ही तीन प्रकारसे दिया है, इसलिए उसे वहाँसे जान लेना चाहिए।
६.६३ अब आवलिप्रमाण स्पर्द्धकोंमें पहले सामान्यरूपसे कहे गये प्रदेशस्थानोंका विशेषरूप से कथन करते हैं
शंका-प्रथम स्पर्द्धकका कथन करते समय इस कथन को क्यों नहीं किया ?
१. प्रा०प्रतौ'असंखेगुणसेढीए' इति पाठः । २. श्रा:प्रतौ 'असंखेजगुणफलीए' इति पाठः।
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