Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ भावादो। एत्थतणो वि उक्कस्सविसेसो असंखेजसमयपवद्धमेत्तो होदूण एगअणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छार असंखेजभागमेत्तो । एवमणंतेहि ठाणेहि विदियं फद्दयं ।
* एवमावलियसमऊणमत्ताणि फद्दयाणि ।
६१६१. एवमेदेहि दोहि फद्दएहिं सह समयूणावलियमेत्ताणि फहयाणि होति, चरिमफालीए पदिदाए उदयावलियमंतरे उकस्सेण समयूणावलियमेत्ताणं चेव गोवुच्छाणमुवलंभादो। एत्थ एदेसु फद्दएसु उप्पाइजमाणेसु फद्दयंतरपरूवणविहाणं फद्दयाणमायामपरूवणविहाणं च जाणिदूण वत्तव्वं ।
समाधान नहीं, क्योंकि प्रकृतिगोपुच्छामें एक एक परमाणुके क्रमसे वृद्धि होने में कोई विरोध नहीं है।
यहाँका भी उत्कृष्ट विशेष असंख्यात समयप्रबद्धमात्र होकर एक अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाके असंख्यातवें भाग है। इस प्रकार अनन्त स्थानोंसे दूसरा स्पर्धक होता है।
विशेषार्थ-पहले एक स्थिति विशेषमें पाये जानेवाले स्थानोंका एक स्पर्धक होता है यह बतला आये हैं । अब यहां दो स्थितिविशेषोंमें वही स्पर्धक चालू न रहकर अन्य स्पर्धक चालू हो जाता है यह बताया जाता जा रहा है। यहां दो स्थितिविशेषोंसे तात्पर्य तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकों में अपना उत्कृष्टगत विशेष लिया गया है । यह जहां अपने जघन्य स्थानसे उत्कृष्ट स्थान तक निरन्तर क्रमसे वृद्धिको लिये हुए है वहाँ प्रथम स्पर्धकके उत्कृष्ट स्थानसे निरन्तर क्रमसे वृद्धिको लिए हुए नहीं है, प्रत्युत प्रथम स्पर्धकके अन्तिम स्थानसे इस स्पर्धकके प्रथम स्थानमें युगपत् बहुत परमाणओंकी वृद्धि देखी जाती है, इसलिये यह दूसरा स्पर्धक है यह सिद्ध होता है। इस स्पर्धकमें कितने स्थान हैं आदि बातोंका खुलासा मूलमें किया ही है, इसलिये वहांसे जान लेना चाहिए । दिशाका बोध कराने मात्रके लिए यह लिखा है।
& इस प्रकार एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धक होते हैं।
६१६१. इस प्रकार इन दो स्पर्धकोंके साथ सब कुल एक समय कम आवलीप्रमाण स्पर्धक होते हैं, क्योंकि अन्तिम फालिका पतन होने पर उदयावलिके अन्दर उत्कृष्ट रूपसे एक समय कम आवलीप्रमाण ही गोपच्छ पाये जाते हैं।
यहाँ इन स्पर्धकोंके उत्पन्न करने पर स्पर्धकोंके अन्तरके कथनका विधान और स्पर्धकोंके मायामके कथनका विधान जानकर कहना चाहिए।
विशेषार्थ-दो समयवाली एक स्थितिके अपने जघन्यके लेकर अपने उत्कृष्ट तक जितने सत्कर्मस्थान होते हैं उनका एक स्पर्धक होता है और तीन समयवाली दो स्थितियोंके अपने जघन्यसे लेकर अपने उत्कृष्ट तक जितने सत्कर्मस्थान होते हैं उनका दूसरा स्पर्धक होता है यह बात तो पृथक् पृथक् बतला आये हैं । अब यहाँ यह बतलाया है कि इस प्रकार इन दो स्पधकों सहित कुल स्पर्धक आवलिप्रमाण कालमेंसे एक समयके कम करने पर जितने समय शेष रहते हैं उतने होते हैं। उतने क्यों होते है इस प्रश्नका समाधान करते हुये वीरसेन स्वामीने जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है स्थितिकोण्डकघात उदयावलिके बाहरके द्रव्यका ही होता है, इसलिये जिस समय अन्तिम फालिका पतन होता है उस समय उदयावलिके भीतर प्रकृत कर्मके एक कम उदयावलिप्रमाण निषेक पाये जानेके कारण
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