Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसहित ५
कम्मट्टि दिपढमसमय पहुडि पलिदो० असंखे ० भागमेत्तसमयपबद्धाणं कम्मक्खंधेहि अन्भहियस्स समाणत्तविरोहादो । णिल्लेवणद्वाणमेत्तसमयपवद्धा वि णियमा अत्थि; तदसंभवपक्खग्गहणेण विणा जहण्णदव्वत्ताणुववत्तोदो । तेण अवसेसकम्मद्विदीए बद्धासेससमयपबद्धाणं परमाणू जहण्णदव्वम्मि अस्थि त्ति सिद्धं । घडदि एदं सव्वं पिजदि कम्महदिमे तो अप्पदरकालो खविदकम्मंसियम्मि होज ? ण च एवं, तस्स पलिदोवस्त असंखे ० भागपमाणत्तादो । ण च भुजगारकाले खविदकम्मंसिओ संभवह, समयं पडि वढमाणकम् मक्खंधस्स खविदकम्मं सियत्त विरोहादो । तम्हा सामित्त समए अप्पदरकालमेत्तसमयपबद्धाणं चैव पदेसेहि होदव्वमिदि ? ण एस दोसो, खविदकम्मं सियकालब्भंतरे भुजगारपदरकालाणं दोन्हं पि संभवेण खविदकम्मं सियकालस्स कम्मट्ठदिपमाणत्तं पडि विरोहाभावादो । ण च भुजगारकालेण खविदकम्मं सिय भावस्स विरोहो; भुजगारकालसंचिददव्वादो तत्तो संखेजगुणअप्पदरकालेण संचयादो असंखेजगुणं दव्वं णिज्जतस्स विरोहाभावा दो ।
$ १३४. वेयणाए पलिदो० असंखे० भागेणूणियं कम्मट्ठदिं सुहुमईदिए सु हिंडाविय तसकाइएस उप्पादो । एत्थ पुण कम्मट्ठिदिं संपुष्णं भमाडिय तसत्तं णीदो,
कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धों के कर्मस्कन्ध अधिक होते हैं, अतः उन्हें अभव्यों के समान माननेमें विरोध आता है । तथा उसके निर्लेपनस्थानप्रमाण समयबद्ध भी नियमसे हैं, क्योंकि उसके असम्भवरूप पक्षको ग्रहण किये बिना जघन्य द्रव्यपना नहीं बन सकता, अतः बाकी बची कर्मस्थितिमें बाँधे गये सब समय प्रबद्धों के परमाणु जघन्य द्रव्यमें हैं यह सिद्ध हुआ ।
शंका -- यदि क्षपितकर्माशमें अल्पतरका काल कर्मस्थितिप्रमाण होता यह सब घट सकता था । किन्तु ऐसा नहीं है; क्योंकि उसका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भाग है और भुजगार के काल में क्षपितकर्माश होना संभव नहीं है; क्योंकि भुजगारके कालके भीतर प्रति समय कर्मस्कन्ध बढ़ता रहता है, अतः उसके क्षपितकर्माशरूप होने में विरोध आता है । अतः स्वामित्वकालमें अल्पतर कालप्रमाण समयप्रबद्धोंके ही प्रदेश होने चाहिये ?
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि क्षपितकर्माशके कालके भीतर भुजगार और अल्पतर दोनों ही काल संभव होनेसे क्षपितकर्माशके कालके कर्मस्थितिप्रमाण होने में कोई विरोध नहीं आता । शायद कहा जाय कि क्षपितकर्माशरूप भावका भुजगार कालके साथ विरोध है सो भी बात नहीं है; क्योंकि भुजगारके कालसे अल्पतरका काल संख्यातगुणा है, अतः भुजगार के कालमें जितने द्रव्यका संचय होता है उससे असंख्यातगुणे द्रव्यकी अल्पतरके कालमें निर्जरा हो जाती है । अतः क्षपित्तकर्माशपनेका भुजगारके कालके साथ विरोध नहीं है ।
$ १३४. वेदनाखण्ड में पल्यके असंख्यातवें भाग कम कर्मस्थितिप्रमाण कालतक सूक्ष्म एकेन्द्रियों में भ्रमण कराकर फिर सकायिकों में उत्पन्न कराया है और यहाँ सम्पूर्ण कर्मस्थिति काल तक भ्रमण कराकर सपर्यायको प्राप्त कराया है, अतः दोनों सूत्रोंमें जिस रीति से
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