Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं संखेजेण खंडिदेणेयखंडमेत्ताए विगिदिगोवुच्छाए तत्थुवलंभादो। (एत्थ दोण्हं गोवुच्छाणं पमाणं कण्णभूमीए' ठविय सोदाराणं पडिबोहो कायव्यो, अण्णहा वायणाए विहलत्तप्पसंगादो । अत्रोपयोगी श्लोक :- .
अप्रतिबुद्धे श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुसाम् ।
नेत्रविहीने भर्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ॥४॥ १४५. संपहि पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा कत्थ संखेजगुणहीणा ? जाए गहिदावसेसहिदीए णाणागुणहाणिसलागाओ रूवूणजहण्णपरित्तासंखेजअद्धच्छेदणयमेत्तीओ होति ताए । एत्थ बालजणउप्पायणहर भागहारपरूवणं कस्सामो । तं जहा-दिवद्वगुणहाणिगुणिदसमग्रपबद्ध दिवड्डगुणहाणिमेत्तअंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डकड्डणभागहारेणगुणिदवेछावहिअण्णोण्णब्भत्थरासीए ओवडिदे पयडिगोवुच्छा आगच्छदि। पयडिगोवुच्छाभागहारेण जहण्णपरित्तासंखेजद्धपदुप्पण्णेण दिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धे भागे हिदे विगिदिगोवुच्छा आगच्छदि । एवं दो वि गोवुच्छाओ आणिय ओवट्टणं करिय गुणगारो साहेयव्यो। णवरि गुणगारेसु भागहारेसु च सव्वत्थ सेसो अत्थि सो जाणिय सिस्साणं परूवेदव्यो । एवं पगदिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा परीतासंख्यातसे भाजित कर जो एक भाग आता है उतनी विकृतिगोपुच्छा वहाँ पाई जाती है।
यहाँ दोनों गोपुच्छाओंका प्रमाण कर्णभूमिमें स्थापित करके श्रोताओंको प्रतिबोध कराना चाहिए, अन्यथा इस व्याख्यानकी विफलताका प्रसंग प्राप्त होता है। इस विषयमें उपयोगी श्लोक देते हैं
श्रोता के न समझने पर मनुष्योंका वक्तृत्व व्यर्थ है, जैसे कि पतिके नेत्रहित होने पर स्त्रियोंका हाव-भाव और श्रृंगार ।।४।।
$ १४५. शंका-प्रकृतिगोपच्छासे विकृतिगोपुच्छा संख्यातगुणी हीन कहाँ होती है ?
समाधान-स्थितिकाण्डकघातरूपसे ग्रहण करके शेष बची जिस स्थितिकी नाना गुणहानिशलाकाएँ रूपोन जघन्य परीतासंख्यातकी अर्द्धच्छेदप्रमाण होती हैं वहाँ विकृतिगोपच्छा। प्रकृतिगोपुच्छासे संख्यातगुणी हीन होती है।
यहाँ बालजनोंको समझानेके लिए भागहारका कथन करते हैं। यथा-डेढ़ गुणहानिसे गुणित समयबद्ध में डेढ़ गुणहानिमात्र अन्तर्मुहूर्तसे भाजित जो अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार उससे गणित दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्तराशिसे भाग देने पर प्रकृतिगोपच्छा आती है। और जघन्य परीतासंख्यातके आधेसे गणित प्रकृतिगोपच्छाके भागहारके द्वारा डेढ़ गणहानिसे गुणित समयप्रबद्धमें भाग देने पर विकृतिगोपच्छा आती है। इस प्रकार दोनों ही गोपुच्छाओंको लाकर और विकृतिगोपुच्छाका प्रकृतिगोपुच्छामें भाग देकर गणकारको साधना चाहिए । मात्र सर्वत्र गुणकारों और भागहारोंमें कुछ शेष रहता है सो जानकर शिष्योंको कहना चाहिये।
शंका-इस प्रकार प्रकृतिगोपुच्छासे संख्यातगुणहीन क्रमसे जाती हुई विकृतिगोपुच्छा 1. ता० प्रा०प्रत्योः 'कम्मभूमिए' इति पाठः । २. ता:प्रवौ 'बालजणमु (पायण" इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org