Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१३९ ३ १३८. ण एसो परिहारो घडंतओ। तं जहा-पयडिगोवुच्छादो ओकड्डुकड्डणाए हेट्ठा णिवदमाणदव्वेण सव्वकालमायादो सरिसेणेव होदव्वमिदि णियमो पत्थि; समाणपरिणामखविदकम्मंसिएसु वि ओकडुक्कड्डणवसेण एगसमयपबद्धस्स पड्डिहाणिदंसणादो । एदेण समाणपरिणामत्तादो एत्थ आय-व्वया सरिसा त्ति एदमवणिदं । एत्थ पुण वयादोजहासंभवमाएण थोवेणेव होदव्वं, अण्णहा पयदगोवुच्छाए थोवत्ताणुववत्तीदो। गोवुच्छागारेण हिदासेसणिसेगदव्वमोकड्डक्कड्डणभागहारेण खंडिय तत्थ एगखंडं घेत्तूण पूणो तेणेव गोवुच्छागारेण तत्थेव णिसिंचमाणे आय-व्वयाणं ण विसरिसत्तमिदि ण वोतं जुत्तं, आवलियमेतहिदीओ हेडा ओसरिय णिक्दमाणाणं सरिसत्ताणुववत्तीदो। ण चावलियमेत्तं चेव णियमेण ओसरिय हेट्ठा णिवदंति ति णियमो अस्थि, संखेजाणं पि पलिदोवमाणं हेट्ठा ओसरणं पडि संभवुवलंभादो। तम्हा आय-व्वया सरिसा त्ति
त्यों बना रहता है। आय और व्यय दोनों में भाज्यराशि तो डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धों की संख्या है और भाजकराशि व्ययमें तो अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे गुणित प्रकृति गोपुच्छा का भागहार है और आयमें डेढ़ गुणहानि और अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे गुणित-एक सौ बत्तीस सागरके कालमें गलितसे वाकी बचे द्रव्यका भागहार है। ये दोनों समान हैं, क्योंकि दोनों जगह गुणकारमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार है। तथा इधर आयमें डेढ़ गुणहानिसे एक सौ बत्तीस सागरके कालमें गलितसे बाकी बचे द्रव्यके भागहारको गुणा किया गया है और उधर व्ययमें उत्कर्षित द्रव्योंमेंसे गलित शेष द्रव्यको लाकर उसमें डेढ़ गुणहानिका भाग देनेसे प्रकृति गोपुच्छा आती है जो कि भागहारस्वरूप है । सारांश यह है कि आयमें डेढ़ गुणहानिसे गुणित गलित शेष द्रव्यका भागहार भाजकराशि है और व्ययमें प्रकृति गोपुच्छाका भागहार भाजकराशि है। ये दोनों राशियां समान हैं, अतः आय और व्ययकी भाज्यराशि और भाजकराशि समान होनेसे दोनोंका प्रमाण समान होता है। अतः जितने प्रदेश जाते हैं उतने ही आ जाते हैं, इसलिये उत्कर्षणके द्वारा प्रदेशोंका व्यतिक्रम नहीं होता।
६ १३८. शंका-यह परिहार नहीं घटता । खुलासा इस प्रकार है-प्रकृतिगोपुच्छासे अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारके द्वारा जो द्रव्य नीचे निक्षिप्त किया जाता है वह सदा आयके समान ही होना चाहिये ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि समान परिणामवाले क्षपितकर्माश सत्कर्मवाले जीवोंमें भी अपकर्षण-उत्कर्षणकी बजहसे एक समयप्रबद्धकी वृद्धि या हानि देखी जाती है। इससे समान परिणाम होनेसे यहाँ आय और व्यय समान होते हैं यह बात नहीं रही। प्रत्युत यहां तो व्ययसे आय यथासम्भव थोड़ी ही होनी चाहिये, अन्यथा प्रकृति गोपुच्छामें स्तोकपना नहीं बन सकता। शायद कहा जाय कि गोपुच्छाकाररूपसे स्थित समस्त निषेकोंके द्रव्यको अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजित करके, उसमेंसे एक भाग लेकर उस भागको उसी गोपुच्छाकाररूपसे उसी में प्रक्षिप्त कर देने पर आय और व्ययमें असमानता नहीं रहती सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक आवलीप्रमाण स्थितियाँ नीचे उतरकर निक्षिप्त किये जानेवाले प्रदेशों में समानता नहीं बन सकती । तथा नियमसे एक आवली प्रमाण उतरकर ही प्रदेश नीचे निक्षिप्त किये जाते हैं ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि संख्यात पल्योपमप्रमाण नीचे उतरना भी संभव है । अतः आय और व्यय समान हैं ऐसा जो तुमने
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