Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१२७ विसोहीए विणासपदुप्पायण । एदेण संकिलेसावासो परूविदो । जाधे अभवसिद्धियपाओग्गं जहण्णयं कम्मं कदं तसेसु आगदो त्ति एदेण वयणेण भवियाणमभवियाणं च एदं खविदकम्मंसियलक्खणं साहारणमिदि जाणाविदं । एदिस्से भव्वाभव्वसाहारणखविदकिरियाए कालो कम्महिदिमेत्तो चेव, कम्मढिदिपढमसमयपबद्धस्स सत्तिहिदीदो उवरि अवठ्ठाणाभावादो। सुहुमणिगोदेसु कम्महि दिमच्छिदो ति सुत्तणिद्देसादो वा । संपहि सुहुमेइंदिसु कम्मणिजरा एत्तिया चेव वड्डिमा णत्थि त्ति सम्मत्तादिगुणेण कम्मणिज्जरणटुं तसेसु उप्पाइदो। सुहुमणिगोदेसु कम्महिदिमेत्तकालं ण भमादेदव्वो पलिदो० असंखे०भागमेत्तअप्पदरकाले चेव कम्मक्खंधक्खयदंसणादो। ण चाप्पदरकालो कम्महिदिमेत्तो, तप्परूवयसुत्तवक्खाणाणमणुवलंभादो ति ? ण एस दोसो, खविदकम्मंसियम्मि अप्पदरकालादो भुजगारकालस्स संखेजगुणहीणतणेण मिच्छादिद्विक्खविदकम्मंसियकिरियाए कम्मट्टिदिकालपमाणत्तं पडि विरोहाभावादो। संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लद्धो त्ति किमटुं वुच्चदे ? गुणसेढीए बहुकम्मणिजरणहूं। लद्धो सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च बहुसो पडिवण्णो त्ति दडव्वं ।
समाधान-विशुद्धिके द्वारा कर्मप्रदेशोंके उपशामनाकरण, निकाचनाकरण और निधत्तिकरणका विनाश करानेके लिए कहा।
इससे संक्लेशरूप आवास बतलाया। 'जब अभव्यके योग्य जघन्य प्रदेश सत्कर्म हुआ तब सोमें आगया' ऐसा कहनेसे 'क्षपितकाशका यह लक्षण भव्य और अभव्य जीवोंके एकसा है, यह बतलाया। भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंके समान रूपसे होनेवाली इस क्षपित क्रियाका काल कर्मस्थितिमात्र ही है, क्योंकि कर्मस्थितिका प्रथम समयप्रबद्ध सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण शक्तिरूप स्थितिसे अधिक काल तक नहीं ठहर सकता, अथवा सूक्ष्म निगादिया जीवोंमें कर्मस्थिति काल तक रहा ऐसा सूत्र में निर्देश है इससे भी सिद्ध है कि क्षपित क्रियाका काल कर्मस्थितिमात्र है।
सूक्ष्म एकेन्द्रियों में इतनी ही कर्मनिर्जरा होती है उसमें वृद्धि नहीं है, इसलिये सम्यक्त्व आदि गुणों के द्वारा कर्मों की निर्जरा कराने के लिए त्रसोंमें उत्पन्न कराया है।
शंका-सूक्ष्मनिगोदिया जीवोंमें कर्मस्थितकाल तक भ्रमण नहीं करना चाहिये, क्योंकि पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण अल्पतरके कालमें ही कर्मस्कन्धोंका क्षय देखा जाता है। शायद कहा जाय कि अल्पतरकाल कमस्थिति प्रमाण है, सो भी नहीं है क्योंकि अल्पतर कालको कर्मस्थितिप्रमाण बतलानेवाला न तो कोई सूत्र ही पाया जाता है और न कोई व्याख्यान ही पाया जाता है ?
समाधान—यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि क्षपितकाशमें अल्पतरके कालसे भुजगारका काल संख्यातगुणा हीन होनेसे, मिथ्यादृष्टि जीवमें क्षपितकर्मा शकी क्रियाके कर्मस्थिति काल प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको अनेक बार प्राप्त किया ऐसा क्यों कहा ?
समाधान-गुणश्रेणीके द्वारा बहुत कर्मोंकी निर्जरा कराने के लिये ऐसा कहा। यहाँ लब्ध शब्दका अर्थ सम्यक्त्व, संयम और संयमसंयमको अनेक बार प्राप्त किया ऐसा
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