Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती १
उत्कृष्ट सचयके लिये अपनी-अपनो उत्कृष्ट स्थिति ही क्यों ली जाती है जब कि उत्कर्षणके द्वारा कर्मस्थितिके बाहर भी कर्मोंका सचय प्राप्त किया जा सकता है ? इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि कर्मों में दो प्रकारकी स्थिति होती है एक शक्तिस्थिति और दूसरी व्यक्तिस्थिति । व्यक्तिस्थिति प्रकट स्थितिका नाम है और शक्तिस्थिति अप्रकट स्थितिका नाम है। जिस कर्मकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति है बन्ध के समय यदि वह पूरी प्राप्त हो जाय तो वह सब की सब व्यक्तिस्थिति कहलायगी और यदि कम प्राप्त हो तो जितनी स्थिति कम होगी उतनी व्यक्तिस्थिति कही जायगी। अब यदि इस कर्मका उत्कर्षण हो तो जितनी व्यक्तिस्थिति है वहीं तक उत्कर्षण हो सकता है अधिक नहीं। इससे यह फलित होता है कि शक्तिस्थिति व्यक्तिस्थितिसे अधिक नहीं होती, किन्तु दोनों समान होती हैं। इस पर यह शंका होती है कि शक्तिस्थिति और व्यक्तिस्थिति समान होती हैं यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? वीरसेन स्वामीने इसका यह समाधान किया है कि सूत्रमें जो यह कहा है कि 'बादर पृथिवीकायिकोंमें कर्मस्थिति काल तक रहा' सो यह कहना तभी बन सकता है जब यह मान लिया जाय कि अपनी व्यक्तिस्थिति प्रमाण ही उस कर्मकी शक्तिस्थिति होती है। यदि ऐसा न माना जाय तो 'कर्मस्थिति काल तक रहा' इस पद के देनेकी कोई सार्थकता ही नहीं रहती । इससे मालूम होता है कि जिस कर्मकी बन्धसे प्राप्त होनेवाली जितनी उत्कृष्ट स्थिति होती है उतने काल तक ही उसका अवस्थान हो सकता है। उत्कर्षणसे उसकी और स्थिति नहीं बढ़ाई जा सकती। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह तो निश्चित हो गया कि उत्कृष्ट संचय प्राप्त करनेके लिये अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिये । किन्तु तब भी यह प्रश्न खड़ा ही रहता है कि छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट बन्धस्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागर नहीं होती किन्तु अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट बन्ध स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर तथा हास्य और रतिकी दस कोड़ाकोड़ी सागर उत्कृष्ट बन्धस्थिति होती है। अतः इन छह कर्मोंका उत्कृष्ट संचय काल कषायोंके समान चालीस कोडाकोड़ी सागर नहीं प्राप्त होता ? इस शंकाका वीरसेनस्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि एक तो जो कर्मस्कन्ध कषायों में से नोकषायोंमें संक्रमित होते हैं उनकी व्यक्तिस्थिति चालीस कोड़ाकोड़ो सागर बन जाती है और दूसरे जिन कर्मस्कन्धोंकी स्थिति घट गई है उनका उत्कषण होकर व्यक्तिस्थितिके काल तक अवस्थान बन जाता है, इसलिये छः नोकषायोंका उत्कृष्ट संचयकाल चालीस कोड़ाकोड़ी सागर माननेमें कोई आपत्ति नहीं है । इसपर फिर यह शंका उठी कि शक्तिस्थिति बन्धसे प्राप्त होनेवाली स्थितिके अनुसार होती है संक्रमणसे होनेवाली स्थितिके अनुसार नहीं होती, अतः जिन कर्मोंका स्थितिबन्ध कम है उनका उत्कर्षण होकर संक्रमणसे प्राप्त होनेवाली स्थितिके काल तक अवस्थान नहीं बन सकता ? इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यद्यपि बन्ध और संक्रमण इन दोनों प्रकारोंसे स्थिति प्राप्त होती है पर इससे व्यक्ति कर्मस्थितिमें कोई भेद नहीं पड़ता। अर्थात ये दोनों ही स्थितियाँ व्यक्तिकर्म स्थिति हो सकती हैं और तब शक्तिस्थितिको इतना मान लेने में कोई अपत्ति नहीं आती । अर्थात् संक्रमणसे जितनी स्थिति प्राप्त होती है वहां तक कर्मो का उत्कर्षण हो सकता है। यद्यपि यह सिद्धान्तपक्ष है. तब भी वीरसेन स्वामी एक दूसरा विकल्प सुझाते हुए लिखते हैं कि यहाँ अपनी अपनी कर्मस्थितिका अधिकार है, अतः यहाँ नोकषायोंकी बन्धस्थिति ही लेनी चाहिये । मालूम होता है कि इस समाधानमें वीरसेन स्वामीकी यह दृष्टि रही है कि उत्कृष्ट संचयके लिये वन्धस्थितिका काल ही प्रधान है, क्योंकि उत्कृष्ट संचय उसके भीतर ही प्राप्त हो सकता है।
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