Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ण, वत्तिट्ठिदीदो अहियसत्तिद्विदीए अभावादो । सत्ति-वत्तिद्विदीओ दो वि समाणाओ त्ति कत्तो णव्वदे ? 'बादरपुढविजीवेसु कम्मट्ठिदिमच्छिदो ति सुत्तादो । बारसकसायाणं व छण्णोकसायाणं चालीससागरोवमकोडाकोडिसंचओ णत्थि, तेसिं उक्कस्स बंधहिदीए चालीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्ताभावादो त्ति ? ण, कसाएहिंतो णोकसाएसु संकंतकम्मक्खंधाणं चालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तवत्तिहिदीणं उक्कड्डणाए सगवत्तिहिदि मेत्तावट्ठाणाणं तत्थुवलंभादो। अकम्मबंधढिदिअणुसारिणी चेव सत्तिकम्मद्विदी कम्मढिदिबंधाणुसारिणी ण होदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, वत्तिकम्महिदित्तं पडि दोण्हं द्विदिबंधाणं भेदाभावादो । अधवा कसायकम्मट्ठिदि मोत्तूण णोकसायकम्महिदीए एत्थ गहणं कायव्वं, अप्पप्पणो कम्महिदीए इहाहियारादो।
समाधान नहीं, क्योंकि व्यक्तिस्थितिसे शक्तिस्थिति अधिक नहीं होती।
शंका-शक्तिस्थिति और व्यक्तिस्थिति दोनों समान होती हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान--'बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें कर्मस्थिति काल तक रहा' इस सूत्रसे जाना जाता है।
शंका-बारह कषायोंकी तरह छ नोकषायोंका संचय चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट बन्धस्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि कषायोंसे नोकषायों में जिन कर्मस्कन्धोंका संक्रमण होता है उनकी व्यक्तिस्थिनि चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमोण होती है, अतः उत्कर्षणके द्वारा छह नोकषायोंमें चालीस कोडाकोड़ी सागर स्थितिप्रमाण काल तक उनका अवस्थान पाया जाता है।
शंका-अकर्मरूपसे स्थित कर्मपरमाणुओंका बन्ध होने पर जो स्थितिबन्ध होता है शक्तिकर्मस्थिति उसके अनुसार ही होती है, किन्तु संक्रमसे जो स्थितिबन्ध प्राप्त होता है उसके अनुसार नहीं होती ?
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, व्यक्तिकर्मस्थितिके प्रति दोनों स्थितिबन्धोंमें कोई भेद नहीं है।
अथवा कषायोंकी कर्मस्थितिको छोड़कर नोकषायोंकी कर्मस्थितिका यहाँ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँ अपनी अपनी कर्मस्थितिका अधिकार है।
विशेषार्थ-बारह कषाय और छह नोकषायों की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी भी मिथ्यात्वकी तरह ही बतलाया है किन्तु मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ीसागरके समान उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति न हो कर चालीस कोड़ाकोड़ी सागर होती है, इसलिये इन कौंका उत्कृष्ट सश्चय मिथ्यात्वके उत्कृष्ट संचयके समान नहीं हो सकता, यह एक प्रश्न है जिसका टीकामें यह समाधान किया है कि स्थितिको छोड़कर अन्य बातमें समानता है, अतः मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय जबसे प्रारम्भ होता है तबसे तीस कोड़ाकोड़ी सागर काल बिताकर कषायों और नोकषायोंके उत्कृष्ट सचयका प्रारम्भ जानना चाहिये, क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसे इन अठारह कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर कम है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि सर्वत्र
१. आ०प्रतौ 'उक्कडणाए सिटिदि' इति पाठः ।
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