Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुढवीए तेत्तीससागरोवमाणि संखेजखंडाणि कादूण तत्थ बहुभागा णqसयवेदबंधकालो होदि, 'प्रक्षेपकसंक्षेपेण' एदम्हादो सुत्तादो तदुवलद्धीए । ईसाणदेवेसु पुण सगसंखे०भागेणूणवेसागरोवममेत्तो चेव णव॒सयवेदसंचयकालो लब्भदि तेण सत्तमपुढवीए चेव उकस्ससामित्तं दिजदि ति ? ण, सव्वतसहिदि णेरइएसु बहुसंकिलेसेसु गमिय तसहिदीए ईसाणदेवाउअमेत्ताए सेसाए ईसाणदेवेसुप्पण्णस्स लाहुवलंभादो। अथवा एसो णqसयवेदगुणिदकम्मंसओ एईदिए हिंतो णिप्पिडिदण तसेसु हिंडमाणो बहुवारमीसाणदेवेसु चेव उप्पाएदव्यो त्ति एसो सुत्ताहिप्पाओ, तसहिदि संखेजखंडाणि कादूण तत्थ बहुखंडीभूदथावरबंधगद्धं तसबंधगद्धाए संखेजे' भागे च णqसयवेदस्सुवलंभादो। ईसाणसद्दो जेण देसामासिओ तेण तसथावरबंधपाओग्गासेसतसेसु जहासंभवमुप्पाएदव्वो त्ति भावत्थो। णेरइएसु व णत्थि उक्कड्डणा, अइतिव्वसंकिलेसाभावादो। तदो एत्थ ण उप्पादेदव्यो त्ति ण पञ्चवडेयं, बंधगद्धालाहस्सेव उक्कड्डणालाहस्स पहाणत्ताभावादो।
शंका-सातवें नरककी तेतीस सागरकी स्थितिके संख्यात खण्ड करके उनमें से बहुभाग नपुंसकवेदके बन्धका काल होता है। यह बात "प्रक्षेपकसंक्षेपेण" इस सूत्रसे उपलब्ध होती है। किन्तु ईशान स्वर्गके देवामें अपने संख्यातवें भाग कम दो सागरप्रमाण ही नपुंसकवेदका संचयकाल पाया जाता है , अतः नपुंसकवेदके उत्कृष्ट संचयका स्वामित्व सातवें नरकमें ही देना चाहिये।
समाधान नहीं, क्योंकि त्रसपर्यायकी सब स्थितिको बहुत संक्लेशवाले नारकियोंमें बिताकर ईशान स्वर्गकी देवायुप्रमाण त्रसस्थितिके शेष रहने पर ईशान स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीवके लाभ अर्थात् उत्कृष्ट संचय अधिक पाया जाता है।
___ अथवा नपुसकवेदका गुणितकाशवाला यह जीव एकेन्द्रियोंमेंसे निकलकर जब त्रसोंमें भ्रमण करे तो उसे बहुत बार ईशानस्वर्गके देवोंमें ही उत्पन्न कराना चाहिये, ऐसा उक्त चूणिसूत्रका अभिप्राय है, क्योंकि त्रसस्थितिके संख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुत खण्डप्रमाण स्थावरबन्धककालमें और संख्यातवें भागप्रमाण त्रसबन्धककालमें नपुंसकवेदका बन्ध पाया जाता है। यतः ईशान शब्द देशामर्षक है, अतः त्रस और स्थावरके बन्धयोग सब त्रसोंमें यथासंभव उत्पन्न कराना चाहिये यह उस सूत्रका भावार्थ है।
शंका-ईशान स्वर्गके देवोंमें नारकियोंकी तरह उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि देवोंमें अति तीन संक्लेशका अभाव है। अतः ईशानमें उत्पन्न नहीं कराना चाहिये।
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि बन्धककालके लाभकी तरह उत्कर्षणके लाभकी प्रधानता नहीं है। अर्थात् उत्कृष्ट संचयके लिये बन्धककाल जितना आवश्यक है उतना उत्कर्षण आवश्यक नहीं है।
विशेषार्थ-नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व गुणितकाशवाले ईशान स्वर्गके देवके बतलाया है । इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि ईशान स्वर्गमें त्रसबन्धककाल और स्थावर बन्धककाल दोनों होते हैं। उसमें भी स्थावरबन्धककाल सबन्धककालसे
१. आप्रतौ '-यावरबंधगद्धाए संखेजे' इति पाठः ।
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