Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५
ही यह जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि हो वैसे हो इसे अतिशीघ्र नरकमें उत्पन्न कराना चाहिए। ऐसा करानेसे नरककी अपेक्षा सम्यक्व प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्त होता है। यहाँ इतना विशेष जानना कि सम्यक्त्वप्राप्तिके पूर्व नरकायुका बन्ध करा देना चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद नरकायुका बन्ध नहीं होता । स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यच या मनुष्यके होता है, नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय ईशान स्वर्गके देवके होता है और पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय डेढ़ पल्यको आयुवालले देवके होता है । इन जीवोंको यथासम्भव शीघ्रसे शीघ्र नरकमें ले जाय तो वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयमें नरककी अपेक्षा उत्कृष्ट संचय प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार नरकगतिमें ओघसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट संचयका विचार किया। अलग अलग प्रत्येक नरकका विचार करने पर सातवें नरकमें सम्यक्त्व प्रकृतिके उत्कृष्ट संचय को छोड़कर और सब क्रम सामान्य नारकियोंके समान बन जाता है, इसलिए सातवें नरकमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय सामान्य नारकियोंके समान कहा । किन्तु कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव सातवें नरकमें नहीं उत्पन्न होता, इसलिये सातवें नरकमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट संचय सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा । अर्थात् सातवें नरकमें सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंचयका जो स्वामी बतलाया है वही जब सम्यक्त्वको प्रदेशोंसे पूर लोता है तो उसके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है। प्रथमादि नरकों में उर को प्राप्त करनेके लिये प्रत्येक प्रकृतिके उत्कृष्ट संचयवाले जीबको उस उस नरकमें ले जाना चाहिये । यही कारण है कि प्रथमादि नरकोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय उत्पन्न होनेके पहलले समयमें कहा । यहाँ इतना विशेष जानना कि पहलो मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट संचय सांतवें नरकमें प्राप्त करावे, स्त्रीवेद का उत्कृष्ट संचय भोगभमिमें प्राप्त करावे, पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय डेढ़ पल्यकी आयवाले देवोंमें उत्पन्न करावे और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय ईशानस्वर्गमें उत्पन्न करावे और पश्चात् यथाविधि उस उस नरकमें ले जाय जहाँका उत्कृष्ट संचय ज्ञातव्य हो । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करनेमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि पहले सातवें नरकमें मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करावे। बादमें उसे तिर्यञ्चोंमें भ्रमाता हुआ अतिशीघ्र उस उस नरकमें ले जाय और उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको प्राप्त कराके सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त कर ले। किन्तु पहले नरकमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि भी उत्पन्न होता है, अतः यहां सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संचय कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिके कहना चाहिये। अब तिर्यश्चगतिमें उसका विचार करते हैं। गुणितकर्मा शवाले जीवके सातवें नरकमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायका उत्कृष्ट संचय होता है। अब यह जीव तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हआ तो तिर्यञ्चोंके इनका उत्कृष्ट संचय पाया जाता है पर यह उत्कृष्ट संचय पहले समय में ही सम्भव है, अतः तिर्यश्चके इन कर्माका उत्कृष्ट संचय उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें कहा है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय भी तियश्चके उत्पन्न होने के प्रथम समय में घटित कर लेना चाहिये । यहाँ स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय ओधके समान कहनेका कारण यह है कि ओघसे भोगभूमिमें तिर्यश्च या मनुष्यके स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय होता है। अतः तिर्यश्चके स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय ओघके समान बन जाता है। अब रही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी तियचोंमें उत्पन्न होता है, अतः ऐसे तियचके उत्पन्न होनेके पहले समयमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संचय कहा। तथा सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय उस तिर्यचके होता है जो सातवें नरकमें मिथ्यात्वका यथासंभव उत्कृष्ट संचय करके तियचोंमें उत्पन्न हुआ। परन्तु ऐसा जीव
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