Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए हाणपरूवणा
४९ ६ ६९. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो।।
६७०. अप्पाबहुआणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे०। ओघेण मोह. सव्वत्थोवा अवढि० । असंखे०भागवड्डी० असंखे गुणा । असंखे०भागहाणो संखेगुणा। अधवा हाणीए उवरि वढी संखे गुणा । एवं सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-मणुस०मणुसअपज०-देवा भवणादि० अवराजिदा त्ति । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वत्थोवा अवढि० । असंखे०भागवड्डी० संखे गुणा । असंखे०भागहाणी संखे०गुणा । वहिहाणीणं विवज्जासो वा । एवं सव्वट्ठ । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
वड्डी समत्ता। ७१. एत्तो हाणपरूवणा जाणिय वत्तव्वा ।
एवमेदेसु पदणिक्खेव-वड्डि-ठाणेसु परूविदेसु
मूलपयडिपदेसविहत्ती समत्ता होदि । विशेषार्थ-पहले कालानुगमके विषयमें जो लिख आये हैं वही अन्तरानुगमके विषयमें जानना चाहिये । अर्थात् भुजगारविभक्तिमें नाना जीवोंकी अपेक्षा तीनों पदोंका जो अन्तर काल बतलाया है वही यहाँ भी तीनों पदोंकी अपेक्षा सर्वत्र जानना चाहिये । खुलासा वहाँ कर आये हैं इसलिये यहाँ नहीं किया है। केवल यहाँ मनुष्यत्रिकमें अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर जो वर्षप्रथक्त्व बतलाया है सो यह उपशमश्रेणिके उत्कृष्ट अन्तरकालकी अपेक्षा कहा है। भुजगारविभक्तिमें भी अवस्थितविभक्तिका यह अन्तर काल सम्भव है पर वहाँ इसकी विवक्षा नहीं की गई है, वैसे यह अन्तरकाल वहाँ भी बन जाता है।
६९. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाव होता है।
६७०. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे अवस्थितप्रदेशविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिप्रदेशविभक्ति वाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिप्रदेशविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अथवा हानिसे वृद्धि संख्यातगुणी है। अर्थात् अवस्थितविभक्तिवालोंसे असंख्यातभाग। हानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं और इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियंच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिये। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें अवस्थितविभक्तिवाले सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अथवा वृद्धि और हानियोंका विपयर्य भी है। अर्थात् अवस्थितविभक्ति वालोंसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं और इनसे संख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें है। तथा इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
इस प्रकार वृद्धि अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६७१. इसके पश्चात् स्थानोंका कथन जानकर करना चाहिये। ___ इस प्रकार इन पदनिक्षेप वृद्धि और स्थानोंका कथनकर चुकनेपर
मूलप्रकृति प्रदेशविभक्ति समाप्त होती है।
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