Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेस विहत्तीए भागाभागो
५९
पुंजे भागे हिदे भागलद्धे तम्मि चैवावणिदे सम्मामि० भागो होदि । पढमपुंजो वि अखंडो मिच्छत्त भागो होदि । अधवा सम्मत्त - मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सदव्वं बुड्डी एगपुंजं काढूण पुणो तिष्णि सरिसभागे करिय तत्थ पढमभागे पलिदो० असंखे०भागेण भागं घेत्तूण भागलद्धदव्वस्स किंचूणमद्धं विदियपुंजे पक्खिविय सेसदव्वम्मि तदियपुंजे पक्खित्ते जहाकमं सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-मिच्छत्तभागा होंति । एत्थ सम्मामि० भागो थोवो । सम्म० भागो विसे० । मिच्छ० भागो विसे० ।
S ७८. संपहि सव्वसमासालावे एत्थ भण्णमाणे अपच्चक्खाणमाणभागो थोवो । कोधे विसेसाहिओ । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । अनंताणु० माणे विसे० । कोहे विसे० । माया विसे० । लोभे विसेसाहिओ । सम्मामि० विसे० । सम्मत्तभागो विसेसा० । मिच्छत्तभागो विसे० । दुगु छाभागो अनंतगुणो । भयभागो विसे० । हस्स - सोगभागो विसे० । रदि-अरदिभागो विसे० । वेदभागो विसे० । माणसंज० भागो विसे० । कोहसंज० भागो विसे० । मायासंज० भागो विसे० । लोभसंज० विसे० । एवं मणुसतिए । तीसरे पुंजमें भाग दो । लब्ध भागको उसी पुंजमेंसे घटा देनेपर जो शेष बचता है वह सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका भाग होता है । और पहला पूरा पुञ्ज मिध्यात्वका भाग होता है अथवा सम्यक्त्व, मिध्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यका बुद्धिके द्वारा एक पुंज करके पुनः उसके तीन समान भाग करो। उसमें से पहले भाग में पल्यके असंख्यातव भागसे भाग देकर भाग देनेसे जो द्रव्य प्राप्त हुआ उसके कुछ कम आधे भागको दूसरे पुजमें मिला दो और शेष द्रव्यको तीसरे पुञ्ज में मिला दो । ऐसा करने पर क्रमशः सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके भाग होते हैं । यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वका भाग थोड़ा है । सम्यक्त्वका भाग उससे विशेष अधिक है और मिध्यात्वका भाग उससे विशेष अधिक है ।
९ ७८. अब यहाँ सब आलापोंको संक्षेपमें कहते हैं-अप्रत्याख्यानावरण मानका भाग थोड़ा है | क्रोधका भाग उससे विशेष अधिक है । मायाका भाग उससे विशेष अधिक है । लोभका भाग उससे विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मानका भाग उससे विशेष अधिक है । क्रोधका भाग उससे विशेष अधिक है । मायाका भाग उससे विशेष अधिक है । लोभका भाग उससे विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मानका भाग उससे विशेष अधिक है । क्रोधका भाग उससे विशेष अधिक है । मायाका भाग उससे विशेष अधिक है । लोभका भाग उससे विशेष अधिक है । सम्यग्मिथ्यात्वका भाग उससे विशेष अधिक है । सम्यक्त्वका भाग उससे विशेष अधिक है । मिध्यात्वका भाग उससे विशेष अधिक है । जुगुप्साका भाग उससे अनन्तगुणा है । भयका भाग उससे विशेष अधिक है । हास्य- शोकका भाग उससे विशेष अधिक है | रति-अरतिका भाग उससे विशेष अधिक है । वेदका भाग उससे विशेष अधिक है । मानसंज्वलनका भाग उससे विशेष अधिक है । क्रोध संज्वलनका भाग उससे विशेष अधिक है । माया संज्वलनका भाग उससे विशेष अधिक है और लोभ संज्वलनका भाग उससे अधिक है । इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्यों में जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — पहले लिख आये हैं कि सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध नहीं होता, इसलिए बन्धकाल में दर्शनमोहनीयका जो द्रव्य मिलता है वह सबका सब
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