Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ चेवालावो कायन्वो, विसेसाभावादो।
$ ७७. संपहि दंसणतियस्स सत्थाणभागाभागे कीरमाणे मिच्छत्तभागं तिप्पडिरासिय तत्थ पढमपुजं मोत्तूण विदियपुंजे पलिदो० असंखे०भागेण भागं घेत्तूण भागलद्धे अवणिदे सम्मत्तभागो होदि । पुणो गुणसंकमभागहारं किंचूणीकरिय तदियक्योंकि जो पहले कहा है उससे कोई अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ-देशघाती द्रव्यका बँटवारा बतलाकर अब सर्वघाती द्रव्यके भागाभागका क्रम बतलाते हैं जो बिल्कुल पूर्ववत् ही है। सर्वघाती द्रव्यका यह विभाग मोहनीयकी केवल तेरह प्रकृतियोंमें ही होता है एक मिथ्यात्व और बारह कषाय । जब अनादि मिथ्यादृष्टि जीवको प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है तो मिथ्यात्वका ही द्रव्य शुभ परिणामोंसे प्रक्षालित होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणत होता है, अतः उन्हें पृथक् द्रव्य नहीं दिया जाता। यहाँ भी सर्वघाती द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक भागको जुदा रख शेष बहुभाग द्रव्यके तेरह समान भाग करने चाहिये । लब्ध एक भागमें पुनः आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको जुदा रख शेष बहुभाग पहले भागमें मिलानेसे मिथ्यात्वका द्रव्य होता है। जुदे रखे एक भागमें पुनः आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको जुदा रख बहुभाग दूसरे समान भागमें मिलानेसे अनन्तानुबन्धी लोभका भाग होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये। दूसरे क्रमके अनुसार सर्वघाती द्रव्यके तेरह समान भाग करके बारह भागोंमेंसे पहले भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे और शेष ग्यारह भागोंमें कुछ कुछ अधिक आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक एक भागोंको जोड़कर तेरहवें भागमें मिलानेसे मिथ्यात्वका द्रव्य होता है और बारह समान भागोंमें अपने अपने लब्ध एक भागको घटानेसे जो जो द्रव्य बचता है वह क्रमसे अप्रत्याख्यानावरण मान, क्रोध, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण मान, क्रोध, माया, लोभ और अनन्तानुबन्धी मान, क्रोध, माया और लोभका भाग होता है । यहाँ अन्तमें ग्रन्थकारने कहा है कि दूसरे क्रममें जो भागहार आवलिके असंख्यातवें भागको कुछ अधिक किया है सो कितना अधिक करना चाहिये यह बात गणितकी प्रक्रिया द्वारा शिष्योंको बतला देना चाहिये । यहाँ एक बात खास तौरसे ध्यान देने योग्य यह है कि गोमट्टसार कर्मकाण्डमें सर्वघाती द्रव्यका बटवारा देशघाती प्रकृतियोंमें भी करनेका विधान किया है और इसलिये तेरहमें संज्वलनचतुष्कको मिलाकर मोहनीयके सर्वघाती द्रव्यका विभाग सत्रह प्रकृतियोंमें किया है। जैसा कि कर्मकाण्डकी गाथा नं० १९९ और २०२ से स्पष्ट है। श्वेताम्बर ग्रन्थ कर्मप्रकृतिके अनुसार सर्वघाती द्रव्यके दो भाग होकर आधा भाग दर्शनमोहनीयको और आधा भाग चारित्रमोहनीयको मिलता है। तथा देशघाती द्रव्यका आधा भाग कषायमोहनीयको और आधा भाग नोकषायमोहनीयको मिलता है। दर्शनमोहनीयको जो आधा भाग मिलता है वह सब मिथ्यात्वप्रकृतिका होता है और चारित्रमोहनीयको जो भाग मिलता है वह बारह कषायोंका होता है तथा उसका आलाप वही होता है जो कि यहाँ मूलग्रन्थमें बतलाया है।
६७७. अब दर्शनत्रिकके स्वस्थानकी अपेक्षा भागाभाग करने पर मिथ्यात्वको जो भाग मिला उसकी तीन राशियाँ करो। उनमेंसे पहले पुंजको छोड़ दो। दूसरे पुंजमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक भागको उसी पुञ्जमेंसे घटा देनेपर जो शेष बचे वह सम्यक्त्वका भाग होता है । फिर गुणसंक्रमभागहारका जो प्रमाण कहा है उसमें से कुछ कम करके उससे
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