Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए वड्ढोए अंतरं ६६१. अंतराणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखेभागवडि-हाणि० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवट्ठि० ज० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। आदेसेण णेरइएसु मोह० असंखे०भागवड्डि-हाणि० ओघं । अवट्टि० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वणेरइय० । णवरि अवडि० उक्क० सगहिदी देसूणा । तिरिक्खेसु मोह० असंखे०भागवहि-हाणिअवहि० ओघभंगो । एवं पंचिंतिरिक्खतिए । णवरि अवहि० जह० एगस०, उक्क० सगद्विदी देसूणा । एवं मणुसतिए । पंचिंदियतिरिक्खअपज. मोह० असंखे०भागवड्डिहाणि-अवहि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज । देवगदीए देवेसु मोह० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवडि० णेरइयभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वहा त्ति । णवरि अवढि० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । एवं जाव अणाहारि ति ।
उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष कथन सुगम है। आगे अनाहारक मार्गणा तक भी यथायोग्य बिचार कर यह काल जानना चाहिये ।
६६१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयको असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तर ओघकी तरह है । अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर ओघकी तरह है । इसी प्रकार तीन प्रकारके पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। देवगतिमें देवोंमें मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासीसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जानना चाहिये । इतना विशेष है कि अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये।
विशेषार्थ-भुजगार प्रदेशविभक्तिका कथन करते समय भुजगार , अल्पतर और अवस्थितप्रदेशविभक्तिका जिस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितप्रदेशविभक्तिका ओष व आदेशसे एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल जानना चाहिये । उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है, इसलिये यहाँ पृथक् पृथक् घटित करके नहीं लिखा।
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