Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
मूलप डिपदेस वित्तीए वड्ढीए परिमाणाणुगमो
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असंखे ० भागहाणि ० के ० १ संखे ० भागो । असंखे ० भागवड्डि० संखेजा भागा ( एसो मूलच्चारणापाढो 'एदेसिं दोन्हं पाढाणमविरोहो' जाणिय घडावेयव्वो । एवं सव्वत्थ । एवं सव्वणेरइय- सव्वतिरिक्ख- मणुस - मणुसअपज० -देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । मणुसपज० मणुसिणीसु मोह० असंखे० भागहाणि - अवद्वि० सव्वजी० के० ९ संखे ० भागो । असंखे ० भागवड्डि० सव्वजी० के० : संखेज्जा भागा । वहि-हाणीणं विवज्जासो वि । एवं सव्व । एवं जाव अणाहारि ति । $ ६४. परिमाणाणु० दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखे०असंख्यातभागवृद्धिवाले संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । यह मूल उच्चारणाका पाठ है । इन दोनों पाठोंमें जानकर अविरोधको घटित कर लेना चाहिये । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए । इस प्रकार सब नारकी, सब तिर्यच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजिततकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्यास और मनुष्यिनियों में मोहनीयुकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । वृद्धि और हानिमें विपर्यास भी है अर्थात् दूसरे पाठके अनुसार असंख्यात भागहानिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव संख्यातवें · भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये ।
विशेषार्थ – राशियाँ तीन हैं असंख्यात भागवृद्धि प्रदेशविभक्तिवाले, असंख्यात भागहानि प्रदेशविभक्तिवाले और अवस्थितप्रदेशविभक्तिवाले । इनमें से कौन कितने भागप्रमाण हैं इसमें मतभेद है । एक उच्चारणके अनुसार तो असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव थोड़े हैं और असंख्यातभागहानिवाले जीव अधिक हैं और मूल उच्चारणाके अनुसार असंख्यात भागहानि वाले जीव थोड़े हैं और असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव बहुत हैं । वीरसेन स्वामी कहते हैं कि जिससे इन दोनों पाठों में विरोध न रहे इस प्रकार इसकी संगति बिठानी चाहिये । हमारा ख्याल है कि कभी क्षपितकर्मांशवाले जीव अधिक हो जाते होंगे और कभी गुणित कर्माशवाले जीव थोड़े रह जाते होंगे । तथा कभी इससे उलटी स्थिति भी हो जाती होगी । मालूम होता है कि इसी कारणसे दो उच्चारणाओं में दो पाठ हो गये होंगे । वास्तव में देखा जाय तो वे दोनों पाठ एक दूसरेके पूरक ही हैं । परन्तु इन दोनों दृष्टियोंसे कथन करते समय अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंके कथनमें अन्तर नहीं पड़ता । वे दोनों अवस्थाओं में एकसे रहते हैं। आगे सब नारकी आदि जो और मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये, इसलिये उनके कथनको ओघ के समान कहा है । परन्तु मनुष्य पर्याप्त, मनुष्य और सर्वार्थसिद्धिके देव संख्यात हैं, इसलिये वहाँ अवस्थितविभक्तिवाले भी सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण कहे हैं। शेष कथन पूर्ववत् है । इसी प्रकार आगेकी मार्गणाओंमें भी यथायोग्य व्यवस्था जानकर भागाभाग कहना चाहिये ।
६४. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव कितने
१. ता० प्रतौ ' - पाठो' इति पाठः । २. ता०प्रसौ 'पाठाणमविरोहो' इति पाठः ।
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