Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअं पदाणं विहत्तियाणं णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइएसु भुज०-अप्प० णत्थि अंतरं । अवढि० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्सतिय-सव्वदेवा त्ति । मणुसअपज० भुज०-अप्पद० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवढि० णेरइयभंगो। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
४९. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
५०. अप्पाबहुअं दुविहं-ओघेण आदेसे०.। ओघेण मोह० सव्वत्थोवा अवट्ठिदविहत्तिया जोवा । अप्पदरविहत्ति० जीवा असंखे गुणा । भुजविहत्ति० संखेगुणा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देव-भवणादि जाव अवराइदो त्ति । मणुसपज.' -मणुसिणी-सव्वट्ठसिद्धि० सव्वत्थोवा मोह० अवढि०मोहनीयकी तीनों पदविभक्तियोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये । आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर विभक्तिवालोंका अन्तर नहीं है। अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, तीन प्रकारके मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये। मनुष्य अपर्याप्तकों में भुजगार और अल्पतर विभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अबस्थितविभक्तिवालों का अन्तर नारकियों के समान है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे तथा सामान्य तिर्यश्चोंमें तीनों विभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं, इसलिये उनका अन्तरकाल नहीं है। आदेशसे भी सामान्य नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं, इसलिये उनमें अन्तरकाल नहीं है। हाँ अवस्थितविभक्तिवाले जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक पाये जाते हैं अतः उनमें अन्तर होता है और अन्तरका जघन्यप्रमाण एक समय और उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यात लोक प्रमाण है । अर्थात् इतने काल तक नारकियोंमें अवस्थितविभक्तिवाले जीव नहीं पाये जावे यह सम्भव है। उसके बाद कोई न कोई जीव अवस्थित विभक्तिवाला अवश्य होता है। सब नारकी आदि अन्य गतियोंमें अन्तरकी यही व्यवस्था है। मात्र मनुष्य अपर्याप्त इसके अपवाद हैं। सो जानकर उनमें अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये।
$ ४९. भावानुगम की अपेक्षा सर्वत्र औदयिकभाव होता है।
६५०. अल्पबहुत्व दो प्रकार का है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अल्पतर विभक्तिवाले जोव असंख्यातगुणे हैं । भुजगार विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमान तक के देवोंमें जानना चाहिये । मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी और सवार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयकी अवस्थित
१. प्रा०प्रतौ 'मणुसअपज०' इति पाठः ।
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