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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे लांगलो-वास्तुविद्यामां लांगलर्नु लक्षण नीचे प्रमाणे जणाव्युं छ
“अनुवंशद्वयस्याऽपि सन्धिाङ्गलमुच्यते।"
भा०टी०-'वे अनुवंशोनी संधि ‘लांगल' कहेवाय छे. ग्रंथान्तरमा संधि अनुसंधिनुं लक्षण नीचे प्रमाणे आप्युं छे
वंशाष्टकस्य यः सन्धिः, स सन्धिरिति कीर्तिताः । ये पुनः स्युस्तदङ्गानां, प्रोक्तारते चानुसन्धयः ॥१७॥ वालाग्रतुल्यं सन्धीनां, प्रमाणं समुदीरितम् । यलेनैतानि संत्यज्य, वास्तुविद्याविशारदः। द्रव्याणि प्रयतो नित्यं, स्थपतिर्विनिवेशयेत् ॥१८॥
भाष्टी०--'आठ वंशोना समागमन नाम संधि कहेवाय छे अने तेना अंगोनो 'आठ पैकीना केटलाक वंशादिकनो' समागम ते 'अनुसंधि' होय छ, आ संधियोर्नु परिमाण 'वालान' जेटलं मूक्ष्म का छ, माटे वास्तुविद्यामा प्रवीण स्थपति नित्य प्रयत्नवान् थड ते टाळीने स्तंभादि द्रव्योनो न्यास करे.
आ स्थले कंटलीक वस्तु खुलासो मांगे छे. पूर्वे 'त्रिको ने संधि नाम आपी ‘उपमर्म मा गण्युं छे. ज्यारे अहीं समस्त सूत्र. संयोगात्मक महाममने संधि कही एर्नु परिमाण वालाग्रमात्र कहीं एर्नु कारण ए छ के आ ग्रंथकार प्रत्येक वंशरज्जुओना संपातने संधि अने अनुसंधि माने छे. भले ते महामम मम के उपमर्मरूप होय. महामर्मादिनां परिमाणो जे कह्या छे. तेनु ज मध्यगत वालाग्रभाग जेटलुं सूक्ष्म परिमाण महाममरूप अति भयंकर गणीने जुएं बता छे. केमके महाममनो वेध गृहस्वामीने अनि घातक गण्यो छे.
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