Book Title: Kalyan Kalika Part 1
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 687
________________ ६०६ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे प्रतिष्ठादि लग्नगत दोषभंग-गुरु कहे छशुक्रस्थितांशाद् राशेर्वा, केन्द्रोपचयगे विधौ । देवप्रतिष्ठाकालेऽत्र, सर्वे दोषाः शमं ययुः ।।८०१॥ भाटी०-शुक्राध्यासित अंश (नवमांश) अथवा राशिथी चंद्रमा केंद्रमा अथवा उपचयमा होय तो देवप्रतिष्ठाना समयमा सर्व दोषो शांत थया एम ज समजबु. बदा शशाङ्काद् गुरुराहितार्चिः, केन्द्रत्रिकोणेषु समस्तवीर्यः। सदाययुर्नाशमुग्रवीर्या, दोषा यथा हालहलो हरेण ॥८०२॥ भान्टी-ज्यारे गुरु तेजस्वी अने संपूर्ण बलवान् थइने चंद्रथी केंद्र (१।४।७।१०) अथवा त्रिकोण (५।९) स्थानोमा रह्यो होय तो समजो के उत्कट : लवान् सर्व दोषोनो नाश थयो, जेम शिव द्वारा हालाहल विषनो नाश थयो हतो. जीवांशकर्माद्यदिकेन्द्रसंस्था, निशाकरो वाऽस्य सुतोऽथवाऽपि । तदाधिगच्छन्ति विनाशमुग्रा, दोषा यथाऽजा हिमसंनिपाते ॥८०३॥ भाण्टी-जो गुरुना नवमांशथी अथवा गुरुसमधिष्ठित राशिथी चंद्रमा अथवा बुध स्थित होय तो उत्कट दोषो विनाशने पामे छे, जेम हिम पडवाथी कमलोनो विनाश थाय छे. यदातिबलवत्सौम्य-चन्द्रावन्योन्यवीक्षितौ । न चेल्लग्नांशके क्रूर-स्तदा पापोदयोऽपि सन् ॥८०४॥ भा०टी०-जो अतिबलवान् सौम्यग्रह अने चंद्रमा एक वीजाने जोता होय अने लग्नमां अथवा नवमांशमां क्रूर न होय तो पापलग्न पण सौम्य बनी जाय छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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